Saturday, 1 November 2014

महाराष्ट्र में भाजपा की जीत का मतलब

महाराष्ट्र में भाजपा का विधानसभा चुनाव में सफल होना एक शुभ संकेत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक करिश्मा किया है। जिसका देश का हर सेकुलर कायल हुआ है। इसके अनेक कारण है। पहला और सबसे बड़ा कारण है महाराष्ट्र से जातिवाद और क्षेत्रवाद की राजनीति के खात्मे की शुरुआत। आमची मुंबई नारे को पूरे महाराष्ट्र के लोगों ने एक सिरे से नकार दिया है। इसका मतलब यह नहीं है कि वह मराठी या महाराष्ट्रीय होने से गुरेज कर रहे हैं। बल्कि वे हिंदुस्तानी होने का प्राथमिकता दे रहे हैं। बाकी देश की तरह ही शांति और सदभाव से रहना चाहते हैं।
शिवसेना औऱ मनसे को झटका ः पिछले पांच साल में महाराष्ट्र में मनसे और शिवसेना जिस तरह से क्षेत्रवाद के नाम पर जहर उगला और लोगों का जीना मुहाल कर दिया। उत्तर भारतीयों पर जो हमले किए। उससे उनका कितना नुकसान हुआ यह तो वे ही जाने आम मराठी का जरूर नुकसान हुआ। जो क्षेत्रवाद, भाषावाद के नाम पर राजनीति करने वाले नहीं देख पाए थे। आम मराठी लोगों को लाठियों से पिटते हुए नहीं देख पाए।

जितनी पीड़ा मनसे, शिवसेना के कार्यकर्ताओं की पिटाई से उत्तर भारतीयों को हुई। उतनी ही पीड़ा आम मराठी भी महसूस कर रहा था। वह खुलकर भले ही नहीं बोल रहा था। पर सहभागी जरूर था। उसे मौका मोदी के रूप में मिला। उसने क्षेत्रवाद की राजनीति को सिरे से खारिज कर दिया। राज ठाकरे इस सदमे से उबर ही नहीं पा रहे हैं। 
मोदी ने गुजरात की  गलती फिर दोहराई
भाजपा नेता नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बने से पहले कुछ लोगों को देश में सांप्रदायिक तनाव बढ़ने की आशंका थी। देश का एक वर्ग इसका लगातार विरोध कर रहा था। परन्तु बहुसंख्यक वर्ग मोदी के इस रूप को नजर अंदाज करके समर्थन देता रहा। उन्हें भारी बहुमत से प्रधानमंत्री बना दिया।  केंद्र सरकार ने ८४ दंगा पीड़ितों को ५ लाख मुआवजा देने की घोषणा की। मुआवजा की रकम बढ़ने से किसी को कोई आपत्ति नहीं है। उन्हें न्याय मिले इससे भी किसी को कोई परेशानी नहीं होगी। परन्तु दिल्ली चुनाव के एेन पहले इस तरह के फैसले का सीधा मतलब लगाया जा सकता है। हालांकि दिल्ली के साथ ही मोदी ने पंजाब पर भी निशाना साध लिया है। वहीं उन लोगों की आशंका भी सच साबित हो गई है कि मोदी चाहे विकास की कितनी ही बात कर लें। परदे के पीछे से वे सांप्रदायिक एजेंडे को ही आगे बढ़ाएंगे। मोदी देश में सेकुलर लोगों की लगातार आलोचना से पीड़ित हैं। पिछले दिनों विश्व मंच पर वे इसे जाहिर भी कर चुके हैं।

मतलब साफ है मोदी सबके नेता, जन नेता , देश समाज और वर्ग से आगे का नेता, जैसे महात्मा गांधी, भगत सिंह, सरदार वल्लभभाई पटेल बनना चाहते हैं। स्वीकार किए जाने की आकांक्षा भी रखते हैं। परन्तु अपनी कार्यशैली भी अपनी सुविधा के अनुसार ही बनाए रखना चाहते हैं। वह भी अपनी शर्तों पर। जो विश्व में कभी भी कहीं भी संभव नहीं है। आप अपनी सुविधा से अपनी नीतियां और कार्यप्रणाली जब तय करते हैं तो पहले उस पर किसी को भरोसा नहीं होता। आप थोड़ा सफल होते हैं तो उस नीति के समर्थक बढ़ते हैं। स्वीकारता के लिए आप पहला कदम बढ़ाते हैं। मोदी के साथ भी यहीं हुआ। अमेरिका दौरे के समर्थन से उन्होंने पहला कदम बढ़ाया था। कुछ अच्छे फैसलों की चमक से दूसरा कदम रखने से पहले वे लड़खड़ा गए। 

८४ के दंगा पीड़ितों का मुद्दा उछालकर उनकी सबसे बड़ी गलती है। हो सकता है दिल्ली चुनाव में इसका उन्हें तात्कालिक लाभ मिल जाए। पर जो लोग उनमें एक जननेता की छवि देखने का प्रयास कर रहे थे उसे जबरदस्त धक्का लगा है। आज मोदी इसे माने या न माने पर सच्चाई यही है। आने वाले समय में उन्हें इसकी भरपाई भी करना पड सकती है। क्योंकि किसी भी समाज में सांप्रदायिकता एक हद तक ही चल पाती है। जैसे ही उसका रूप विकृत होना शुरू होता है। सारा दोष उसी के माथे मढ़ दिया जाता है। भाजपा भी उनके साथ आने वाले समय में यही कर सकती है। आडवाणी इसके उदाहरण हैं। कट्टरता के रथ से वे आगे तो बढ़ गए थे। भाजपा को एक अळग पहचान भी दिलाने में सफल हो गए थे। परन्तु कभी जननेता की छवि नहीं बना पाए थे। उनका समय चुकते ही उन्हें दर किनार कर दिया गया। हर कट्टर वादी के साथ हमेशा से एेसा ही हुआ है। सेकुलर बनने की चाह में आडवाणी जिन्ना की मजार पर माथा टेककर विवादित बयान तक दे बैठे। 

एक समय के बाद मोदी में जब जननेता बनने की उत्कंठा बढ़ेगी। तब वे भी इसी तरह के कदम उठाने की कोशिश करेंगे। वह कोशिश इमानदार होगी। पर कोई भी उस पर भरोसा नहीं कर पाएगा। कारण साफ है गुजरात दंगों का दाग कभी साफ होगा नहीं। उसे लोग भूल भी जाते। पर अब ८४ की सालों पुरानी शांत चिंगारी को हवा देने की उनकी कोशिश कभी माफ नहीं होगी। यह नेहरू की तरह की एतिहासिक भूल मानी जाएगी। 
१ नवंबर २०१४