Saturday, 4 April 2015

अल्पसंख्यकों के बढ़ते भय का सवाल है जस्टिस कुरियन जोसेफ का

पूरे देश में एक नई बहस छिड़ गई है। इस बहस के जनक हैं सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस कुरियन जोसेफ। उन्होंने ज्वाइंट कांफ्रेंस के आयोजन के समय पर सवाल उठाया है। इसके पक्ष और विपक्ष में अनेक तर्क दिए जा रहे हैं। जिनका अपना -अपना महत्व है। पर सवाल यह है कि इस तरह के सवाल अगर आए हैं तो उनका निराकरण करने के स्थान पर उसे उठाने पर सवाल ज्यादा उठाए जा रहे हैं।
 देश में अल्प संख्यक समुदाय अब अपने को ज्यादा असुरक्षित महसूस करने लगा है। इसका कारण भाजपा की सरकार बनना है। उनका डर जायज ही । भाजपा धर्म को अपना प्रमुख आधार मानती है। संघ के इशारे पर चलती है।  अल्पसंख्यकों को लगता है कि भाजपा देश की धर्म निरपेक्ष छवि को धीरे -धीरे बदलने में लगी हुई है। सरकार के कई फैसले, संघ नेताओँ की दखलादांजी, भाजपा के सहयोगी संगठनों का बढ़ता दबदबा इन सबके डर को पुख्ता करते हैं। इसी डर से जस्टिस जोसेफ का सवाल भी उभरा है। कुछ दिनों पहले ही देश में आतंकवाद से लड़ने वाले पुलिस अधिकारी भी इसी तरह का बयान भी दे चुके हैं। यानि अल्पसंखक समुदाय बेहद घबराया हुआ है। 
वह किसी भी तरह के धार्मिक हमले पर तत्काल तीखी प्रतिक्रिया देने लगा है। भले ही इस तरह के फैसले सहज प्रक्रिया का कोई हिस्सा भले ही। उनका डर तत्काल प्रतिक्रिया दे रहा है। जबकि ऐसा नहीं है। न ही देश की धर्मनिरपेक्ष छवि को नुकसान पहुंचाया जा सकता है। क्योंकि कागजों में कुछ भी बदल दिया जाए। लोगों की भावनाएं, आदतें कैसे बदल जाएगी। आम आदमी आज भी पैदा होते ही धर्म निरपेक्ष माहौल में रहता है। वह तमाम कोशिश भी कर ले तो भी धर्म निरपेक्षता को दर किनार नहीं कर पाता है।
यह हमारे देश की विशेषता भी है। पग- पग पर धर्म निरपेक्षता के उदारहण मिल जाएंगे। ऐसा नहीं है कि धर्म निरपेक्षता को समूल नष्ट करने वाले चुप बैठे हैं। वे अपनी तरफ से लगातार कोशिश करते रहे हैं और करते भी रहेंगे। परन्तु कुछ लोग तात्कालिक प्रभाव में आकर उनका साथ भी दें सकते हैं। परन्तु बहुसंख्यक समुदाय उनके बहकावे में नहीं आएगा।
इसलिए इस तरह के सवाल पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। अल्प संख्यक के भय को दूर करने की जरूरत है। पर सावधानी के साथ। कहीं अल्प संख्यक के नाम पर इस तबके का शोषण करने वाले गलत लाभ न उठा लें। अभी तक यही होता आया है। अल्प संख्यक के डर का शोषण ज्यादा किया गया है। इतिहास इसके अनेक उदाहरणों से भरा पड़ा है। केवल उनके घटते मनोबल को बढ़ाने से ही सारी समस्या का निराकरण हो जाएगा। हर सरकार के समय इस तरह के डर का वातावरण बनता है।
जब कांग्रेस आती है तो बहुसंख्यक खुद को असुरक्षित महसूस करने लगता है। उसे लगता है कि उसकी तमाम सही बातों को भी वोट की राजनीति के लिए नजर अंदाज किया जाएगा। जबकि ऐसा नहीं है। सरकार कोई भी रहे। उसे सभी समुदाय के लोगों की जरूरत होती है। सबके हितों की रक्षा के लिए वह निरपेक्ष भाव से करती है। पर इस बात से इनकार नहीं है कि कुछ सरकार में बैठे लोग सांप्रदायिक ताकतो का बेजा इस्तेमाल अपने हित के लिए करते आए हैं। वे पहले भी थे और अब भी हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने अब दोहरी चुनौती है। वे बहुसंख्यक के बढ़ते उत्साह को कैसे काबू में रखते हैं और अल्प संख्यकों के मन में आए भय को कैसे दूर करते हैं। अगर वे इस चुनौती पर खरे उतरते हैं तो निसंदेह आने वाले समय में उनके समकक्ष कोई खड़ा भी नहीं हो सकेगा।

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