भाजपा का पुराने नारे से नई ऊड़ान की कोशिश
24 दिसबंर को भाजपा ने मोदी फॉर पीएम और वन वोट-वन नोट अभियान की शुरुआत की घोषणा भारी जोरशोर से की। मीडिया में भी अच्छा रिस्पांस मिला। लेकिन भाजपा को जानने वाले जानते हैं कि यह नया नारा नहीं है। पहले भी भाजपा इस तरह के नारों को लोकसभा और विधानसभा चुनाव में आजमा चुकी है। तक नारा कुछ और था। पर मतलब यही था। इसका भाजपा को थोड़ा लाभ भी मिला है। कुछ राज्यों में उनकी पकड़ मजबूत हुई है। लेकिन उसके कारण भी कुछ दूसरे ही हैं।
लोकसभा चुनाव में कांग्रेस से ज्यादा चुनौती उसे आप से है। जहां उसे नए नारे और नए अंदाज से मैदान में उतरना पड़ेगा। लेकिन भाजपा से मामले में बड़ी चूक कर गई। वन बूथ टेन यूथ उसका पुराना नारा है। बूथ पर बैठने वाले जानते हैं कि क्या करना होता है और कैसे करना होता है।
इससे पहले मोदी की रैली के नाम पर एक और दस रुपए भी उगाने या मांगने का अभियान चल चुका है।
कांग्रेस में भी इसी तर्ज पर सदस्यता अभियान चलता था। भाजपा वहीं से प्रेरित हुई है। उसे लगता है कि कांग्रेस मजबूत इसी से हुई है। जबकि यह महज भीड़ को एकत्र करने की कांग्रेस की एक रणनीति भर थी। ताकि लोग भ्रम में रहें। उनका जमीनी हकीकत से कोई नाता नहीं था। अगर एेसा होता तो वह जिन राज्यों में बुरी तरह से नहीं हारती।
भाजपा का कैडर तो पहले से ही आरएसएस के माध्यम से मजबूत था। वह वन नोट तो ले लेगी। लेकिन वोट उसे मिलेगा कि नहीं। यह केवल चुनाव परिणाम के बाद कहा जा सकेगा। मोदी की हवा कहां है और कितनी है इसका खुलासा भी तभी होगा।
भाजपा हवा बनाने में माहिर है। इंडिया शाइनिंग की हवा भी एेसे ही निकली थी। लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा के बाद भी भाजपा को इतना समर्थन देश से नहीं मिला था। केवल राम के नाम पर लोगों ने वोट डाल दिया था। जो एक भावनात्मक वोट था। अब वह वोट कभी उसे नहीं मिलने वाला है। यह बात वह भी जानती है। क्योंकि मंदिर नहीं बन पाया है।
आम आदमी पार्टी को केवल लोगों ने नए विकल्प के रूप में समर्थन दिया था। अगर भाजपा और कांग्रेस की संयुक्त रणनीति से सि्टंग आपरेशन सामने नहीं आया होता तो लोगों के बीच में जो धुंध के बादल लाए गए थे। 29 सीटों की जगह 47 सीटों पर जाकर छंटती।
अब लोगों के सामने से सभी तरह की शंकाओं का समाधान हो चुका है। वे नई पार्टी को नहीं वोट दे रहे हैं। बल्कि पुरानी सड़ी गली नीतियों के खिलाफ अपना रोष वोट के रूप में जाहिर कर रहे हैं। अगर भाजपा नीतियों को लेकर कुछ ठोस रणनीति लोगों के सामने पेश करती तो शायद उसकी सीटों की संख्या बढ़ने के आसार बढ़ जाते। लेकिन वह वहीं पुरानी लकीर पीटने की गलती दोहरा गई।
जबकि उनसे कम अनुभवी राहुल गांधी जरूर एक कदम आगे बढ़ गए हैं। उन्होंने आप को समर्थन देकर नई धारा के साथ चलने का नया विकल्प अपनाने की कोशिश की है। इसका उसे तो लाभ मिलेगा ही। बल्कि उसने आप को कद बढ़ाकर अपरोक्ष रूप से भाजपा के मोदी समर्थन को रोकने के लिए नई दीवार खड़ी कर दी है। भाजपा इसे कांग्रेस की बी टीम कहकर अपनी वास्तविक हताशा ही दिखाने की रणनीति से आगे नहीं बढ़ पा रही है।
उसके रणनीतिकार इस बात को समझ ही नहीं पा रहे हैं कि जब तक नई धारा के साथ चला जाएगा। सत्ता पर काबिज होने का सपना टूटता ही रहेगा। उसे उम्मीद है कि फिर से वह आप को बदनाम करने के कांग्रेस के हिडन एजेंडे में शामिल होकर दिल्ली का सिहांसन नहीं जीत लेगी लेकिन यह उसकी भूल है।अगर आप का समर्थन करती है तो जरूर उसकी राह की अड़चने कम होने की संभावना है।
भले ही इस बार आप के बढ़ते कदम लोकसभा चुनाव में भले डगमगा जाएं। परन्तु यह तय है कि वह केंद्र में बनने वाली 2014 की सरकार में काफी अहम भूमिका निभाने वाली है। आम लोगों को विधायक बनते देख लोगों को लगने लगा है कि अब वे भी सांसद बन सकते हैं। बड़े नेताओं को धूल चटा सकते हैं। वैसे ही सांसदों का आम लोगों से बर्ताव बहुत ही बुरा होता है। यह पार्टियां भले न जानती हो लेकिन लोग भली-भांति जानते हैं।
26 दिसबंर 2013राजेश रावत भोपाल
24 दिसबंर को भाजपा ने मोदी फॉर पीएम और वन वोट-वन नोट अभियान की शुरुआत की घोषणा भारी जोरशोर से की। मीडिया में भी अच्छा रिस्पांस मिला। लेकिन भाजपा को जानने वाले जानते हैं कि यह नया नारा नहीं है। पहले भी भाजपा इस तरह के नारों को लोकसभा और विधानसभा चुनाव में आजमा चुकी है। तक नारा कुछ और था। पर मतलब यही था। इसका भाजपा को थोड़ा लाभ भी मिला है। कुछ राज्यों में उनकी पकड़ मजबूत हुई है। लेकिन उसके कारण भी कुछ दूसरे ही हैं।
लोकसभा चुनाव में कांग्रेस से ज्यादा चुनौती उसे आप से है। जहां उसे नए नारे और नए अंदाज से मैदान में उतरना पड़ेगा। लेकिन भाजपा से मामले में बड़ी चूक कर गई। वन बूथ टेन यूथ उसका पुराना नारा है। बूथ पर बैठने वाले जानते हैं कि क्या करना होता है और कैसे करना होता है।
इससे पहले मोदी की रैली के नाम पर एक और दस रुपए भी उगाने या मांगने का अभियान चल चुका है।
कांग्रेस में भी इसी तर्ज पर सदस्यता अभियान चलता था। भाजपा वहीं से प्रेरित हुई है। उसे लगता है कि कांग्रेस मजबूत इसी से हुई है। जबकि यह महज भीड़ को एकत्र करने की कांग्रेस की एक रणनीति भर थी। ताकि लोग भ्रम में रहें। उनका जमीनी हकीकत से कोई नाता नहीं था। अगर एेसा होता तो वह जिन राज्यों में बुरी तरह से नहीं हारती।
भाजपा का कैडर तो पहले से ही आरएसएस के माध्यम से मजबूत था। वह वन नोट तो ले लेगी। लेकिन वोट उसे मिलेगा कि नहीं। यह केवल चुनाव परिणाम के बाद कहा जा सकेगा। मोदी की हवा कहां है और कितनी है इसका खुलासा भी तभी होगा।
भाजपा हवा बनाने में माहिर है। इंडिया शाइनिंग की हवा भी एेसे ही निकली थी। लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा के बाद भी भाजपा को इतना समर्थन देश से नहीं मिला था। केवल राम के नाम पर लोगों ने वोट डाल दिया था। जो एक भावनात्मक वोट था। अब वह वोट कभी उसे नहीं मिलने वाला है। यह बात वह भी जानती है। क्योंकि मंदिर नहीं बन पाया है।
आम आदमी पार्टी को केवल लोगों ने नए विकल्प के रूप में समर्थन दिया था। अगर भाजपा और कांग्रेस की संयुक्त रणनीति से सि्टंग आपरेशन सामने नहीं आया होता तो लोगों के बीच में जो धुंध के बादल लाए गए थे। 29 सीटों की जगह 47 सीटों पर जाकर छंटती।
अब लोगों के सामने से सभी तरह की शंकाओं का समाधान हो चुका है। वे नई पार्टी को नहीं वोट दे रहे हैं। बल्कि पुरानी सड़ी गली नीतियों के खिलाफ अपना रोष वोट के रूप में जाहिर कर रहे हैं। अगर भाजपा नीतियों को लेकर कुछ ठोस रणनीति लोगों के सामने पेश करती तो शायद उसकी सीटों की संख्या बढ़ने के आसार बढ़ जाते। लेकिन वह वहीं पुरानी लकीर पीटने की गलती दोहरा गई।
जबकि उनसे कम अनुभवी राहुल गांधी जरूर एक कदम आगे बढ़ गए हैं। उन्होंने आप को समर्थन देकर नई धारा के साथ चलने का नया विकल्प अपनाने की कोशिश की है। इसका उसे तो लाभ मिलेगा ही। बल्कि उसने आप को कद बढ़ाकर अपरोक्ष रूप से भाजपा के मोदी समर्थन को रोकने के लिए नई दीवार खड़ी कर दी है। भाजपा इसे कांग्रेस की बी टीम कहकर अपनी वास्तविक हताशा ही दिखाने की रणनीति से आगे नहीं बढ़ पा रही है।
उसके रणनीतिकार इस बात को समझ ही नहीं पा रहे हैं कि जब तक नई धारा के साथ चला जाएगा। सत्ता पर काबिज होने का सपना टूटता ही रहेगा। उसे उम्मीद है कि फिर से वह आप को बदनाम करने के कांग्रेस के हिडन एजेंडे में शामिल होकर दिल्ली का सिहांसन नहीं जीत लेगी लेकिन यह उसकी भूल है।अगर आप का समर्थन करती है तो जरूर उसकी राह की अड़चने कम होने की संभावना है।
भले ही इस बार आप के बढ़ते कदम लोकसभा चुनाव में भले डगमगा जाएं। परन्तु यह तय है कि वह केंद्र में बनने वाली 2014 की सरकार में काफी अहम भूमिका निभाने वाली है। आम लोगों को विधायक बनते देख लोगों को लगने लगा है कि अब वे भी सांसद बन सकते हैं। बड़े नेताओं को धूल चटा सकते हैं। वैसे ही सांसदों का आम लोगों से बर्ताव बहुत ही बुरा होता है। यह पार्टियां भले न जानती हो लेकिन लोग भली-भांति जानते हैं।
26 दिसबंर 2013राजेश रावत भोपाल
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