अभी तो विवादों की शुरूआत हुई
आप के सत्ता में भागीदार बनते ही विवादों की झड़ी लगना तय था। यह भाजपा और कांग्रेस दोनों ही जानते थे। मंगलवार 24 दिसबंर को आप के दफ्तर के बाहर जो हुआ वह आने वाली फिल्म का मात्र एक टेलर है।
असली फिल्म तो अरविंद और पूरा देश लोकसभा चुनाव का मतदान होने के बाद देखेगी। इससे पहले बहुत तो नजारे रामलीला के मंच के इर्द -गिर्द देखने को मिलेंगे। क्योंकि अच्छे लोगों की भीड़ कभी न तो अनुशासित रह सकती है और न ही एक मंच पर ज्यादा देर तक खड़े रह सकते हैं। यह उनकी सबसे बड़ा नकारात्मक पहलु होता है।
जब तक साथ हैं तो ठीक। अलग होते ही इस तरह से नुक्ताचीनी करने लगते हैं जैसी दूसरे विरोधी भी नहीं कर पाते हैं। इसका उदाहरण आप से नाराज विधायक के मामले में अरविंद के साथ पहले जुड़ी रही किरण बेदी की टिप्पणी है। वे थोड़ा से पुराने साथी होने के लिहाज ही नहीं रख पाई। उन्हें क्रेडिट की इतनी भूख है कि केजरीवाल टीम की आलोचना को कोई मौका नहीं छोड़ना चाहती है। लोग जानते हैं। उनकी महत्वकांक्षा को। इसीलिए वे दिल्ली की पुलिस प्रमुख नहीं बन पाई थी। अब भले अन्ना के साथ कितना भी रहें। उन्हें लोग अरविंद केजरीवाल का विकल्प तो नहीं मानेंगे।
इससे पहले सत्ता से वंचित कांग्रेस का एक धड़ा दबाव बनाने की रणनीति के तहत समर्थन के खिलाफ खड़ा हो गया है। यह भी कांग्रेस की एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा है। ताकि समर्थन वापस लेते समय भूमिका बनाते समय लोगों को समझाया जा सके कि उसके कार्यकर्ता समर्थन का विरोध कर रहे थे। इसलिए उसने समर्थन वापस ले लिया है।
भाजपा को भी अब सत्ता संभालने का अनुभव हो चुका है। इसलिए वह भी लोकसभा चुनाव तक चुप रहकर तेल देखो तेल की धार देखो की तर्ज पर मंच के किनारे खड़ी हुई है। सत्ता की चाबी को मौका लगते ही लपकने के लिए।
इधर आम आदमी जो परे परिदृश्य से एकदम से गायब हो गया है। सब देख रहा है। उसे पता है कि अब लोकसभा चुनाव में क्या करना है। उसके मन में जो आप को लेकर धुंध छाई थी। अब पूरी तरह से साफ हो गई है। कोहरे के बादलों से उसकी नजरों से ज्यादा देर तक अंधेरा नहीं रहने वाला है।
राजेश रावत भोपाल
आप के सत्ता में भागीदार बनते ही विवादों की झड़ी लगना तय था। यह भाजपा और कांग्रेस दोनों ही जानते थे। मंगलवार 24 दिसबंर को आप के दफ्तर के बाहर जो हुआ वह आने वाली फिल्म का मात्र एक टेलर है।
असली फिल्म तो अरविंद और पूरा देश लोकसभा चुनाव का मतदान होने के बाद देखेगी। इससे पहले बहुत तो नजारे रामलीला के मंच के इर्द -गिर्द देखने को मिलेंगे। क्योंकि अच्छे लोगों की भीड़ कभी न तो अनुशासित रह सकती है और न ही एक मंच पर ज्यादा देर तक खड़े रह सकते हैं। यह उनकी सबसे बड़ा नकारात्मक पहलु होता है।
जब तक साथ हैं तो ठीक। अलग होते ही इस तरह से नुक्ताचीनी करने लगते हैं जैसी दूसरे विरोधी भी नहीं कर पाते हैं। इसका उदाहरण आप से नाराज विधायक के मामले में अरविंद के साथ पहले जुड़ी रही किरण बेदी की टिप्पणी है। वे थोड़ा से पुराने साथी होने के लिहाज ही नहीं रख पाई। उन्हें क्रेडिट की इतनी भूख है कि केजरीवाल टीम की आलोचना को कोई मौका नहीं छोड़ना चाहती है। लोग जानते हैं। उनकी महत्वकांक्षा को। इसीलिए वे दिल्ली की पुलिस प्रमुख नहीं बन पाई थी। अब भले अन्ना के साथ कितना भी रहें। उन्हें लोग अरविंद केजरीवाल का विकल्प तो नहीं मानेंगे।
इससे पहले सत्ता से वंचित कांग्रेस का एक धड़ा दबाव बनाने की रणनीति के तहत समर्थन के खिलाफ खड़ा हो गया है। यह भी कांग्रेस की एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा है। ताकि समर्थन वापस लेते समय भूमिका बनाते समय लोगों को समझाया जा सके कि उसके कार्यकर्ता समर्थन का विरोध कर रहे थे। इसलिए उसने समर्थन वापस ले लिया है।
भाजपा को भी अब सत्ता संभालने का अनुभव हो चुका है। इसलिए वह भी लोकसभा चुनाव तक चुप रहकर तेल देखो तेल की धार देखो की तर्ज पर मंच के किनारे खड़ी हुई है। सत्ता की चाबी को मौका लगते ही लपकने के लिए।
इधर आम आदमी जो परे परिदृश्य से एकदम से गायब हो गया है। सब देख रहा है। उसे पता है कि अब लोकसभा चुनाव में क्या करना है। उसके मन में जो आप को लेकर धुंध छाई थी। अब पूरी तरह से साफ हो गई है। कोहरे के बादलों से उसकी नजरों से ज्यादा देर तक अंधेरा नहीं रहने वाला है।
राजेश रावत भोपाल
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