Saturday, 25 April 2015

कालजयी होने की हर नेता की आरजू


राजेश रावत (फोटो : गूगल साभार)
हर नेता दिल में कालजयी होने की आरजू पालकर ही राजनीति करता है। उसका हर काम इसी दिशा में बढ़ता हुआ कदम होता है। परन्तु अपनी जुबान से खुलकर हिम्मत नहीं कर पाता है। यह अलग बात है कि वह अपने दिल के अरमानों को अपने समर्थकों के जरिये जनता के सामने लाता रहता है। कांग्रेस नेता और पूर्व विदेश

मंत्री सलमान खुर्शीद का नया वीडियो ‘कल हो न हो ’भी इसी कड़ी का हिस्सा है। पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि अपनी तमन्ना को सलमान खुर्शीद ने बिना किसी लाग-लपेट के सबके सामने लाए और स्वीकार भी किया।
 ‘कल हो न हो ’ वीडियो में सलमान खुर्शीद ने जर्मन राजदूत माइकल स्टैन्स की पत्नी एलिस के साथ रोमांटिक दृश्यों में नजर आए हैं। वे भी अन्य दूसरे नेताओं की तरह ही खुद को कालजयी बनाना चाहते हैं। जैसे एक दौर में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने किया था। नेहरू को महात्मा गांधी जी से प्रेरणा मिली थी। वे भी यही चाहते थे कि उन्हें गांधी जी के बाद लोग याद करें। हालांकि उन्हें इस बात की जरूरत नहीं थी। क्योंकि वे भारत के पहले प्रधानमंत्री बनकर कालजयी हो गए थे। स्वतंत्र भारत का प्रधानमंत्री बनने के बाद भी उनकी महत्वकांक्षा कम नहीं हुई। वे लगातार इस कोशिश में लगे रहे कि उन्हें गांधी के तुल्य माना जाए। परन्तु वे इसमें सफल नहीं हो पाए। पर इससे नेहरू जी के काम और महत्व कभी कम नहीं हुआ।

अब कांग्रेस नेताओं में सलमान इस कोशिश में जुट गए हैं। वे कई मोर्चों पर सफल तो नहीं हो पाए। साथ के राजनेताओं ने उन्हें हाशिए पर ला खड़ा किया था। यह बात वे जान भी चुके हैं। इसलिए अपने को फिर से मुख्य धारा में लाने के लिए उन्होंने नई कोशिश की है। इसमें कोई बुराई भी नहीं है। परन्तु देश में किसी नेता को इस तरह के रूप में देखने की आदत नहीं है।
 सलमान की कोशिश उन्हें कितना लाभ या नुकसान पहुंचाती है यह तो आने वाले समय में सामने आएगा। परन्तु उनका साहस या यूं कहें दुस्साहस भरा कदम जरूर है। अभी कुछ दिनों पहले ऐसा ही कदम कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने उठाया था। उन्होंने अपने एक टीवी पत्रकार के साथ संबंधों को खुलकर स्वीकारा था। उनकी समय रहते इस स्वीकृति से देश में मचने वाला बड़ा वबंडर जरूर रुक गया था। क्योंकि देश में बड़े नेताओं के लव अफेयर्स अभी भी लोगों आसानी से पचा नहीं पाते हैं।

प्रधानमंत्री मोदी के तमाम अच्छे काम पर लोग भले ही तालियां बजाएं। परन्तु उनका पत्नी को छोड़ना आज भी लोग भूले नहीं है। इसको लेकर लोगों के मन में एक उलझन हैं। वे मोदी का समर्थन करते समय भी उनके इस अध्याय पर बात करने से कतराते हैं और कतराते रहेंगे। ऐसे ही अटल बिहारी को लेकर लोग हमेशा से करते रहे हैं। 

Sunday, 19 April 2015

इतिहास बदलने से क्या सच्चाई बदलेगी

देश में लंबे समय से इतिहास बदलने का मुद्दा उठता रहा है। जब तब इतिहास की अनेक खामियों को गिनाकर इसे बदलने की वकालात करने वाले आवाज बुलंद करते हैं। उनके विरोधी इतिहास को तो़ड़ने मरोड़ने की कोशिश करार देकर विरोध करने लगते हैं। इससे न तो इतिहास बदला जा पा रहा है। और न ही नया लिखने में जितनी ऊर्जा लगनी चाहिए। या प्रयास करने चाहिए नहीं हो पाते हैं। इससे भी ज्यादा भयानक पहलू सामने आने लगा है। वह यह कि इतिहास को लिखने वाले ही इसे हाथ लगाने से डरने लगे है। कुछ अपवादों को छोड़कर। जबकि होना यह चाहिए कि जो बीत चुका और छोड़कर आगे जो अच्छा किया जा सकता है। उसे करने की कोशिश हो। आप नया इतिहास लिख दीजिये। किसी ने आपको रोका नहीं है। आप नया इतिहास लिखते समय इस बात का भी उल्लेख कर सकते हैं कि नया इतिहास लिखने की जरूरत क्यों पड़ी और क्या बदलाव किए गए हैं। इससे आने वाली पीढ़ी को दोनों ही बातों का पता चल जाएगा। जिसे जिस पर भरोसा करना है। वह करे। जिसे नहीं करना है। वह न करें।
किसी को भी इससे कोई आपत्ति नहीं होगी। वैसे भी इतिहास कभी बिना भेदभाव के न तो लिखा गया है और न आगे लिखा जाएगा। हर बार इतिहास को बदलने की कोशिश होती रही है। पहले देश काल और परिस्थितियां अलग थी। अब अलग हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो भारत पर या दुनिया के जितने भी देशों पर विदेशी लोगों ने आक्रमण किए उनका ही इतिहास चलता रहता। परन्तु ऐसा नहीं है। जहां भी इस तरह की कोशिश हुई वह विफल ही हुई है। यह इतिहास बदलने और वैसा ही रखे जाने की वकालात करने वाले दोनों ही वर्ग जानते हैं। वे तो बस माहौल बनाने में लगे रहते हैं। ताकि उसकी तरफ लोगों का ध्यान जाए। उनके सत्ता में आने या संघर्ष करने को भी इतिहास में दर्ज कर लिया जाए। जब दोनों पक्ष इतिहास लिखें तो वे इसका जिक्र अपने -अपने हिसाब से करें। मसलन इतिहास बदलने वाले लोग इसकी वकालत करने वालों को महान बताएंगे। वहीं इतिहास बदलने का विरोध करने वाले उन्हें विलेन के रूप में इतिहास में दर्ज करेंगे।
आम आदमी इस बात से कोई सरोकार नहीं रखता है। वह जानता है कि इतिहास न तो बनता है और न ही बनाया जाता है। इतिहास तो खुद व खुद एक समय के बाद बन जाता है। बस उसमें अलग अलग तबकों के नायक और विलेन होते हैं। जिनको लेकर दो पक्षों का अलग -अलग नजरिया होता है।
एक कालखंड की समस्त घटनाएं दूसरे कालखंड का स्वत: ही इतिहास बन जाती है।  इसका लोग अपने हिसाब से ही अंदाज लगाते हैं और आकलन करते हैं। उनके समय में परिस्थितों के बदलने में नजरिया अहम भूमिका निभाता है। इसलिए हर बार इतिहास से खिलावाड़ की कोशिश बंद होना चाहिए।


Saturday, 18 April 2015

महात्मा गांधी के अपमान के बहाने अपना सम्मान बढ़ाते लोग

देश की आजादी में महात्मा गांधी का जो योगदानहै। उस पर देश की बात छोड़ दीजिए दुनिया को भी संदेह नहीं है। फिर भी ऐसा क्या है कि लोग वर्षों से उनका अपमान करते आ रहे हैं। हर नई पीढ़ी के मन में महात्मा गांधी के सम्मान को लेकर संशय उत्पन्न होता है। कुछ ज्यादा ही उग्र विचारों के लोग अपमान करने से नहीं चूकते हैं। अभी हाल ही कई लोगों के बयानों से इस विवाद को फिर हवा मिल गई। इससे गांधी वादी या उनके विरोधी दोनों के बीच चर्चा का विषय एक बार फिर गांधी जी के इर्दगिर्द आ गया। उनके विरोधी भी मानते हैं कि उनकी कई बातों से देश में राष्ट्रीय एकता की भावना का प्रसार-प्रचार हुआ। लोग खुलकर अंग्रेजों के विरुद्ध एकजुट हुए। उस समय भी उनकी कार्यप्रणाली से देश का एक तबका इत्तेफाक नहीं रखता था। पर वे गांधी जी का उतना ही सम्मान करते थे, जितना की उनके समर्थक।
आजादी के बाद आम आदमी की नजर में गांधी जी का सम्मान कभी कम नहीं हुआ। पर कुछ लोगों ने अपने गुस्से के इजहार के लिए उनके सम्मान में अपमानजक बातें कहना शुरू कर दी। यहीं से एक नया सिलसिला शुरू हो गया। लोगों को लगने लगा गांधी जी के अपमान में कुछ भी कहने से लोगों का उनकी तरफ ध्यान जाएगा। उन्हें नए नजरिये से देखा जाएगा। जबकि वास्तव लोग एेसे लोगों की असंवेदनशीलता के नजरिये पर आश्चर्य करते थे। कोई कैसे किसी महान व्यक्ति के बारे कह सकता है। बेचारे अपने को ज्यादा गंभीर दिखाने के चक्कर में खुद ही दया के पात्र बन गए। उनके लिए सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस दीपक मिश्रा और प्रफुल्ल सी पंत की बेंच एक नजीर है।
 दरअसल, 1994 बैंक ऑफ महाराष्ट्र कर्मचारी यूनियन की इन हाउस मैगजीन में यह कविता छपी थी। शीर्षक था, ‘गांधी माला भेटला होता’ यानी ‘गांधी मुझसे मिले थे’। कविता 1984 में मराठी कवि वसंत दत्तात्रेय गुर्जर ने लिखी थी। इसमें गांधीजी के मुंह से कई टिप्पणियां करवाई गई हैं।
इस केस की सुनवाई के दौरान महात्मा गांधी पर लिखी गई विवादित मराठी कविता  से सुप्रीम कोर्ट जज भावुक हो उठे। कविता को अश्लील और आपत्तिजनक बताया। फिर कहा, ‘राष्ट्रपिता का सम्मान करना हर नागरिक की जिम्मेदारी है। ऐसी कविता आहत करती है। हम उनका अपमान कैसे कर सकते हैं?’

Sunday, 12 April 2015

गलती करने पर माफी मांगना और आपको बड़ा बनाता

राजेश रावत
भोपाल ।गलती करना या होना जाना स्वाभाविक है। परन्तु गलती करने के बाद उसे सुधारते हुए माफी मांगना सबके बूते की बात नहीं है। यह केवल वह ही कर सकता है, जिसका दिल बढ़ा होता है। या जो आगे बढ़ने के लिए पीछे की छोटी बातों को भूलने के लिए तैयार रहता है। आज के युवाओं में गलती को सुधारने की ललक ज्यादा है। शायद यही कारण है कि वे नए नए कीर्तिमान रच भी रहे हैं। परन्तु इसके उलट सयाने लोग आज भी अपनी गलती को मानने को तैयार नहीं होते हैं। या उनकी पोल खुलने से बौखलाकर उस पर पर्दा डालने की कोशिश करने लगते हैं। जबकि वे जानते हैं कि उनके ऐसा करने से भी कुछ नहीं होने वाला है।

गलती मान लेने से उनका कद ही बढ़ेगा। क्योंकि सभी जानते हैं कि गलती किसी उम्र की मोहताज नहीं होती है। इसी तरह से माफी का अवसर हर किसी को नहीं मिलता है। समय पर अगर माफी मांग ली जाए तो उसका असर लंबे समय तक रहता है। दिल से एक बहुत बढ़ा बोझ भी उतर जाता है। आपके विषय में लोगों की सोच बदल जाती है। दायरा बढ़ने से लोग आपके आने से किसी विवाद की वजह से हिचक रहे होते हैं वे फिर उसी रवानगी के साथ आने लगते हैं जैसे कुछ हुआ ही नहीं।

लेकिन आप गलती के बाद भी अगर उसे सुधारने की जगह अड़ जाते हैं तो आप खुद अवरोध बन जाते हैं। अपने और उन लोगों के बीच जो आपके काम और अच्छाईयों के समर्थक होते हैं। वे आपको सही सलाह भी देने से बचने लगते हैं। उन्हें लगता है कि आप कहीं उन्हें भी बेइज्जत न करें। न भी करें तो उनकी राय को उतनी तवज्जों नहीं देंगे। जितनी वह अपेक्षा करता है। इसके दो उदाहरण है। सऊदी में एक युवक ने कचरा बीनने वाली लड़की को देखा। वह कचरा बीन रही थी। लेकिन उसने सऊदी के मशहूर फुटबाल क्लब अल इत्तिहाद की जर्सी पहन रखी थी। बच्ची को देखने वाले उस युवा को शरारत सूझी। उसने अपने मोबाइल से एक सेल्फी लड़की के साथ खींच ली। उसे सोशल मीडिया स्नैप चैट पर पोस्ट कर दिया। कैप्शन लिखा, देखो अल इत्तिहाद कहां पड़ा है।
जैसे ही फोटो पोस्ट हुई लोगों में नाराजगी बढ़ गई। लोगों को लगा कि युवक बच्ची की गरीबी का मजाक उड़ा रहा है। फोटो को वायरल होने लगी पर आलोचना के साथ। लोग युवक पर नाराजगी जताने लगे। स्नेप चैट ने विवाद बढ़ते ही फोटो हटाई। पर फोटो तो वायरल हो चुकी थी। अब युवक को लगा कि उससे गलती हो गई। वह तो फुटबाल क्लब का मजाक उड़ाना चाहता है। उसने लोगों की आलोचन के बाद बच्ची से माफी मांगी और उसे उपहार में गिफ्ट भी दिए। लोगों ने बच्ची की मदद को 75 लाख रुपए दे दिए। इस सबमें युवक ने सबक दिया कि गलती होने पर माफी मांगने से कोई छोटा नहीं हो जाता है।

अब दूसरा उदाहरण देखते हैं। जदयू नेता शरद यादव ने पद्म अवॉर्ड गरीबों को नहीं देने पर सवाल उठाया। उनका सवाल सही भी हो सकता था। परन्तु गलत तरीके से उठाया। मंशा भी गलत ही थी। उनकी सिफारिश को केंद्र सरकार ने दरकिनार कर दिया था। इससे वे आहत थे। इसलिए पद्म अवॉर्ड देने पर सवाल खड़ा कर दिया। अब केंद्र सरकार ने इसका खुलासा कर दिया। केंद्र सरकार को 1878 सिफारिश मिली थी। उसमें से उसने 127 लोगों को चुना। जिन लोगों को पद्म अवॉर्ड मिले हैं। उनमें कोई ऐसा नाम नहीं है। जिसे गलत तरीके से पद्म अवॉर्ड से नवाजा गया हो। मतलब जिन लोगों को पुरस्कार मिले हैं वे योग्य थे। गरीब और अमीर का सवाल ही नहीं था। अब सबकुछ सामने आ गया। तब भी शरद यादव ने अपनी गलती नहीं मानी।

अब कह रहे हैं कि पद्म अवॉर्ड की प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है। मतलब वे माफी मांगने को तैयार नहीं है। बस यहीं से उनकी बात कमजोर हो गई। अव्वल तो सिफारिश नहीं करना थी। कर दी थी तो उसे तवज्जों नहीं मिलने की सही मंच पर बात को उठाना था। सार्वजनिक रूप से पद्म अवॉर्ड की आलोचना करने से बचना चाहिए थे। गरीब और दूसरे वर्गों के नाम पर पद्म अवॉर्ड की राजनीति से अच्छे रचनाकारों का अहित ही होगा। पहले से ही अच्छे साहित्यकारों के बीच इस बहस ने बहुत नुकसान किया है। अब जो इसे मुद्दा बनाना चाहते हैं उनके लिए शरद यादव ने फिर मसाला दे दिया है।

Saturday, 4 April 2015

अल्पसंख्यकों के बढ़ते भय का सवाल है जस्टिस कुरियन जोसेफ का

पूरे देश में एक नई बहस छिड़ गई है। इस बहस के जनक हैं सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस कुरियन जोसेफ। उन्होंने ज्वाइंट कांफ्रेंस के आयोजन के समय पर सवाल उठाया है। इसके पक्ष और विपक्ष में अनेक तर्क दिए जा रहे हैं। जिनका अपना -अपना महत्व है। पर सवाल यह है कि इस तरह के सवाल अगर आए हैं तो उनका निराकरण करने के स्थान पर उसे उठाने पर सवाल ज्यादा उठाए जा रहे हैं।
 देश में अल्प संख्यक समुदाय अब अपने को ज्यादा असुरक्षित महसूस करने लगा है। इसका कारण भाजपा की सरकार बनना है। उनका डर जायज ही । भाजपा धर्म को अपना प्रमुख आधार मानती है। संघ के इशारे पर चलती है।  अल्पसंख्यकों को लगता है कि भाजपा देश की धर्म निरपेक्ष छवि को धीरे -धीरे बदलने में लगी हुई है। सरकार के कई फैसले, संघ नेताओँ की दखलादांजी, भाजपा के सहयोगी संगठनों का बढ़ता दबदबा इन सबके डर को पुख्ता करते हैं। इसी डर से जस्टिस जोसेफ का सवाल भी उभरा है। कुछ दिनों पहले ही देश में आतंकवाद से लड़ने वाले पुलिस अधिकारी भी इसी तरह का बयान भी दे चुके हैं। यानि अल्पसंखक समुदाय बेहद घबराया हुआ है। 
वह किसी भी तरह के धार्मिक हमले पर तत्काल तीखी प्रतिक्रिया देने लगा है। भले ही इस तरह के फैसले सहज प्रक्रिया का कोई हिस्सा भले ही। उनका डर तत्काल प्रतिक्रिया दे रहा है। जबकि ऐसा नहीं है। न ही देश की धर्मनिरपेक्ष छवि को नुकसान पहुंचाया जा सकता है। क्योंकि कागजों में कुछ भी बदल दिया जाए। लोगों की भावनाएं, आदतें कैसे बदल जाएगी। आम आदमी आज भी पैदा होते ही धर्म निरपेक्ष माहौल में रहता है। वह तमाम कोशिश भी कर ले तो भी धर्म निरपेक्षता को दर किनार नहीं कर पाता है।
यह हमारे देश की विशेषता भी है। पग- पग पर धर्म निरपेक्षता के उदारहण मिल जाएंगे। ऐसा नहीं है कि धर्म निरपेक्षता को समूल नष्ट करने वाले चुप बैठे हैं। वे अपनी तरफ से लगातार कोशिश करते रहे हैं और करते भी रहेंगे। परन्तु कुछ लोग तात्कालिक प्रभाव में आकर उनका साथ भी दें सकते हैं। परन्तु बहुसंख्यक समुदाय उनके बहकावे में नहीं आएगा।
इसलिए इस तरह के सवाल पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। अल्प संख्यक के भय को दूर करने की जरूरत है। पर सावधानी के साथ। कहीं अल्प संख्यक के नाम पर इस तबके का शोषण करने वाले गलत लाभ न उठा लें। अभी तक यही होता आया है। अल्प संख्यक के डर का शोषण ज्यादा किया गया है। इतिहास इसके अनेक उदाहरणों से भरा पड़ा है। केवल उनके घटते मनोबल को बढ़ाने से ही सारी समस्या का निराकरण हो जाएगा। हर सरकार के समय इस तरह के डर का वातावरण बनता है।
जब कांग्रेस आती है तो बहुसंख्यक खुद को असुरक्षित महसूस करने लगता है। उसे लगता है कि उसकी तमाम सही बातों को भी वोट की राजनीति के लिए नजर अंदाज किया जाएगा। जबकि ऐसा नहीं है। सरकार कोई भी रहे। उसे सभी समुदाय के लोगों की जरूरत होती है। सबके हितों की रक्षा के लिए वह निरपेक्ष भाव से करती है। पर इस बात से इनकार नहीं है कि कुछ सरकार में बैठे लोग सांप्रदायिक ताकतो का बेजा इस्तेमाल अपने हित के लिए करते आए हैं। वे पहले भी थे और अब भी हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने अब दोहरी चुनौती है। वे बहुसंख्यक के बढ़ते उत्साह को कैसे काबू में रखते हैं और अल्प संख्यकों के मन में आए भय को कैसे दूर करते हैं। अगर वे इस चुनौती पर खरे उतरते हैं तो निसंदेह आने वाले समय में उनके समकक्ष कोई खड़ा भी नहीं हो सकेगा।