Thursday, 26 December 2013

भाजपा का पुराने नारे से नई ऊड़ान की कोशिश
24 दिसबंर को भाजपा ने मोदी फॉर पीएम और वन वोट-वन नोट अभियान की शुरुआत की घोषणा भारी जोरशोर से की। मीडिया में भी अच्छा रिस्पांस मिला। लेकिन भाजपा को जानने वाले जानते हैं कि यह नया नारा नहीं है। पहले भी भाजपा इस तरह के नारों को लोकसभा और विधानसभा चुनाव में आजमा चुकी है। तक नारा कुछ और था। पर मतलब यही था। इसका भाजपा को थोड़ा लाभ भी मिला है। कुछ राज्यों में उनकी पकड़ मजबूत हुई है। लेकिन उसके कारण भी कुछ दूसरे ही हैं।
लोकसभा चुनाव में कांग्रेस से ज्यादा चुनौती उसे आप से है। जहां उसे नए नारे और नए अंदाज से मैदान में उतरना पड़ेगा। लेकिन भाजपा से मामले में बड़ी चूक कर गई। वन बूथ टेन यूथ उसका पुराना नारा है। बूथ पर बैठने वाले जानते हैं कि क्या करना होता है और कैसे करना होता है।
इससे पहले मोदी की रैली के नाम पर एक और दस रुपए भी उगाने या मांगने का अभियान चल चुका है।

कांग्रेस में भी इसी तर्ज पर सदस्यता अभियान चलता था। भाजपा वहीं से प्रेरित हुई है। उसे लगता है कि कांग्रेस मजबूत इसी से हुई है। जबकि यह महज भीड़ को एकत्र करने की कांग्रेस की एक रणनीति भर थी। ताकि लोग भ्रम में रहें। उनका जमीनी हकीकत से कोई नाता नहीं था। अगर एेसा होता तो वह जिन राज्यों में बुरी तरह से नहीं हारती।

भाजपा का कैडर तो पहले से ही आरएसएस के माध्यम से मजबूत था। वह वन नोट तो ले लेगी। लेकिन वोट उसे मिलेगा कि नहीं। यह केवल चुनाव परिणाम के बाद कहा जा सकेगा। मोदी की हवा कहां है और कितनी है इसका खुलासा भी तभी होगा।

भाजपा हवा बनाने में माहिर है। इंडिया शाइनिंग की हवा भी एेसे ही निकली थी। लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा के बाद भी भाजपा को इतना समर्थन देश से नहीं मिला था। केवल राम के नाम पर लोगों ने वोट डाल दिया था। जो एक भावनात्मक वोट था। अब वह वोट कभी उसे नहीं मिलने वाला है। यह बात वह भी जानती है। क्योंकि मंदिर नहीं बन पाया है।


आम आदमी पार्टी को केवल लोगों ने नए विकल्प के रूप में समर्थन दिया था। अगर भाजपा और कांग्रेस की संयुक्त रणनीति से सि्टंग आपरेशन सामने नहीं आया होता तो लोगों के बीच में जो धुंध के बादल लाए गए थे। 29 सीटों की जगह 47 सीटों पर जाकर छंटती।

अब लोगों के सामने से सभी तरह की शंकाओं का समाधान हो चुका है। वे नई पार्टी को नहीं वोट दे रहे हैं। बल्कि पुरानी सड़ी गली नीतियों के खिलाफ अपना रोष वोट के रूप में जाहिर कर रहे हैं। अगर भाजपा नीतियों को लेकर कुछ ठोस रणनीति लोगों के सामने पेश करती तो शायद उसकी सीटों की संख्या बढ़ने के आसार बढ़ जाते। लेकिन वह वहीं पुरानी लकीर पीटने की गलती दोहरा गई।
जबकि उनसे कम अनुभवी राहुल गांधी जरूर एक कदम आगे बढ़ गए हैं। उन्होंने आप को समर्थन देकर नई धारा के साथ चलने का नया विकल्प अपनाने की कोशिश की है। इसका उसे तो लाभ मिलेगा ही। बल्कि उसने आप को कद बढ़ाकर अपरोक्ष रूप से भाजपा के मोदी समर्थन को रोकने के लिए नई दीवार खड़ी कर दी है। भाजपा इसे कांग्रेस की बी टीम कहकर अपनी वास्तविक हताशा ही दिखाने की रणनीति से आगे नहीं बढ़ पा रही है।

उसके रणनीतिकार इस बात को समझ ही नहीं पा रहे हैं कि जब तक नई धारा के साथ चला जाएगा। सत्ता पर काबिज होने का सपना टूटता ही रहेगा। उसे उम्मीद है कि फिर से वह आप को बदनाम करने के कांग्रेस के हिडन एजेंडे में शामिल होकर दिल्ली का सिहांसन नहीं जीत लेगी लेकिन यह उसकी भूल है।अगर आप का समर्थन करती है तो जरूर उसकी राह की अड़चने कम होने की संभावना है।

भले ही इस बार आप के बढ़ते कदम लोकसभा चुनाव में भले डगमगा जाएं। परन्तु यह तय है कि वह केंद्र में बनने वाली 2014 की सरकार में काफी अहम भूमिका निभाने वाली है। आम लोगों को विधायक बनते देख लोगों को लगने लगा है कि अब वे भी सांसद बन सकते हैं। बड़े नेताओं को धूल चटा सकते हैं। वैसे ही सांसदों का आम लोगों से बर्ताव बहुत ही बुरा होता है। यह पार्टियां भले न जानती हो लेकिन लोग भली-भांति जानते हैं।
26 दिसबंर 2013राजेश रावत भोपाल

Tuesday, 24 December 2013

अभी तो विवादों की शुरूआत हुई
आप के सत्ता में भागीदार बनते ही विवादों की झड़ी लगना तय था। यह भाजपा और कांग्रेस दोनों ही जानते थे। मंगलवार 24 दिसबंर को आप के दफ्तर के बाहर जो हुआ वह आने वाली फिल्म का मात्र एक टेलर है।

असली फिल्म तो अरविंद और पूरा देश लोकसभा चुनाव का मतदान होने के बाद देखेगी। इससे पहले बहुत तो नजारे रामलीला के मंच के इर्द -गिर्द देखने को मिलेंगे। क्योंकि अच्छे लोगों की भीड़ कभी न तो अनुशासित रह सकती है और न ही एक मंच पर ज्यादा देर तक खड़े रह सकते हैं। यह उनकी सबसे बड़ा नकारात्मक पहलु होता है।

जब तक साथ हैं तो ठीक। अलग होते ही इस तरह से नुक्ताचीनी करने लगते हैं जैसी दूसरे विरोधी भी नहीं कर पाते हैं। इसका उदाहरण आप से नाराज विधायक के मामले में अरविंद के साथ पहले जुड़ी रही किरण बेदी की टिप्पणी है। वे थोड़ा से पुराने साथी होने के लिहाज ही नहीं रख पाई। उन्हें क्रेडिट की इतनी भूख है कि केजरीवाल टीम की आलोचना को कोई मौका नहीं छोड़ना चाहती है। लोग जानते हैं। उनकी महत्वकांक्षा को। इसीलिए वे दिल्ली की पुलिस प्रमुख नहीं बन पाई थी। अब भले अन्ना के साथ कितना भी रहें। उन्हें लोग अरविंद केजरीवाल का विकल्प तो नहीं मानेंगे।

इससे पहले सत्ता से वंचित कांग्रेस का एक धड़ा दबाव बनाने की रणनीति के तहत समर्थन के खिलाफ खड़ा हो गया है। यह भी कांग्रेस की एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा है। ताकि समर्थन वापस लेते समय भूमिका बनाते समय लोगों को समझाया जा सके कि उसके कार्यकर्ता समर्थन का विरोध कर रहे थे। इसलिए उसने समर्थन वापस ले लिया है।

भाजपा को भी अब सत्ता संभालने का अनुभव हो चुका है। इसलिए वह भी लोकसभा चुनाव तक चुप रहकर तेल देखो तेल की धार देखो की तर्ज पर मंच के किनारे खड़ी हुई है। सत्ता की चाबी को मौका लगते ही लपकने के लिए।
इधर आम आदमी जो परे परिदृश्य से एकदम से गायब हो गया है। सब देख रहा है। उसे पता है कि अब लोकसभा चुनाव में क्या करना है। उसके मन में जो आप को लेकर धुंध छाई थी। अब पूरी तरह से साफ हो गई है। कोहरे के बादलों से उसकी नजरों से ज्यादा देर तक अंधेरा नहीं रहने वाला है।
राजेश रावत भोपाल

Thursday, 19 December 2013

विदेश में मान अपमान हमारे हाथ में
राजेश रावत
१९ दिसबंर २०१३ भोपाल

अमेरिका में अब तक अनेक भारतीयों को अपमानित किया गया है। हर बार भारत सरकार चुप्पी लगा जाती थी। इससे अमेरिका में भारतीयों के साथ बदतमीजी करने की छूट मिलती रही। हर बार सुरक्षा का हवाला देकर अपमानित करने वाले अधिकारियों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। तब अमेरिका में भी हालात तनाव के थे। इससे भारत सरकार की हिम्मत नहीं होती थी कि वह विरोध जता सके। यह तर्क विदेश नीति के जानकार दे सकते थे। लेकिन हकीकत यह है कि भारतीय लगातार अमेरिका में अपमानित होकर भी वहां जाने को लालायित रहते हैं। पढ़ने या रोजगार के लिए विदेश जाना बुरा नहीं है। लेकिन अपमानित होने के बाद भी कुछ लाभ के लिए जाना खुद के अलावा देश की गरिमा के साथ भी खिलवाड़ है। उस पर तुर्रा यह कि विदेश जाने के फैसले के समर्थन में गलत तर्क देना में पीछे नहीं हटते। विदेश पढ़ने जाना जितना हमारे लिए जरूरी है। उससे ज्यादा दूसरे देशों को हमारे देश के अच्छे युवाओं की जरूरत है। वहीं वे भारत में अपने मार्केट को बढ़ाने के लिए भी ज्यादा सैलरी देने का प्रलोभन देते हैं। फेसबुक हो या गूगल इसके ताजा उदाहरण है। दोनों कंपनिया केवल अपने मार्केट को बढ़ाने के युवाओं को करोड़ा का पैकेज दे रही है। नासा हो या अन्य बढ़े विदेशी संस्थान उन्हें केवल अच्छे टेलेंट की दरकार होती है। यह उनकी मोनोपॉली भी मान सकते हैं कि एक्सट्राआर्डिनरी दिमाग को केवल अपनी संपत्ति मानकर इस्तेमाल करते हैं।
माना कि देश में बहुत सी कमी है। लेकिन क्या अच्छे जॉब और अच्छी सेलरी देश में नहीं मिलती है। उन लोगों के सामने कुछ उदाहरण दे रहा हूं। सबसे पहले बात करते हैं। सुपर ३० के संस्थापक आनंद का। उनकी सफलता का लोहा पूरी दुनिया मान चुकी है। चीन से भी उनकी पढ़ाई का पेटर्न जानने के लिए छात्र और अध्यापाक आ चुके हैं। वे पैसे कमाने के साथ ही देश के युवाओं को सही मार्गदर्शन दे रहे हैं। बिजनेस में टाटा और अंबानी का नाम किसी पहचान की मोहताज नहीं है। इसके अलावा एेसे अनेक लोग हैं। जो बिना विदेश मोहर के अपनी पहचान बना चुके हैं। जरूरत है देश के युवाओं को इस बात को समझाने की विदेश पढ़ने जाएं परन्तु मान-अपमान की कीमत पर नहीं। अगर इस विचार के साथ विदेश जाने की तैयारी कराने लगे तो शायद आने वाले भविष्य में इस तरह अपमानित होने की घटनाएं नहीं होगी। 
विदेश में मान अपमान हमारे हाथ में 
राजेश रावत 
१९ दिसबंर २०१३ भोपाल

अमेरिका में अब तक अनेक भारतीयों को अपमानित किया गया है। हर बार भारत सरकार चुप्पी लगा जाती थी। इससे अमेरिका में भारतीयों के साथ बदतमीजी करने की छूट मिलती रही। हर बार सुरक्षा का हवाला देकर अपमानित करने वाले अधिकारियों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। तब अमेरिका में भी हालात तनाव के थे। इससे भारत सरकार की हिम्मत नहीं होती थी कि वह विरोध जता सके। यह तर्क विदेश नीति के जानकार दे सकते थे। लेकिन हकीकत यह है कि भारतीय लगातार अमेरिका में अपमानित होकर भी वहां जाने को लालायित रहते हैं। पढ़ने या रोजगार के लिए विदेश जाना बुरा नहीं है। लेकिन अपमानित होने के बाद भी कुछ लाभ के लिए जाना खुद के अलावा देश की गरिमा के साथ भी खिलवाड़ है। उस पर तुर्रा यह कि विदेश जाने के फैसले के समर्थन में गलत तर्क देना में पीछे नहीं हटते। विदेश पढ़ने जाना जितना हमारे लिए जरूरी है। उससे ज्यादा दूसरे देशों को हमारे देश के अच्छे युवाओं की जरूरत है। वहीं वे भारत में अपने मार्केट को बढ़ाने के लिए भी ज्यादा सैलरी देने का प्रलोभन देते हैं। फेसबुक हो या गूगल इसके ताजा उदाहरण है। दोनों कंपनिया केवल अपने मार्केट को बढ़ाने के युवाओं को करोड़ा का पैकेज दे रही है। नासा हो या अन्य बढ़े विदेशी संस्थान उन्हें केवल अच्छे टेलेंट की दरकार होती है। यह उनकी मोनोपॉली भी मान सकते हैं कि एक्सट्राआर्डिनरी दिमाग को केवल अपनी संपत्ति मानकर इस्तेमाल करते हैं।
माना कि देश में बहुत सी कमी है। लेकिन क्या अच्छे जॉब और अच्छी सेलरी देश में नहीं मिलती है। उन लोगों के सामने कुछ उदाहरण दे रहा हूं। सबसे पहले बात करते हैं। सुपर ३० के संस्थापक आनंद का। उनकी सफलता का लोहा पूरी दुनिया मान चुकी है। चीन से भी उनकी पढ़ाई का पेटर्न जानने के लिए छात्र और अध्यापाक आ चुके हैं। वे पैसे कमाने के साथ ही देश के युवाओं को सही मार्गदर्शन दे रहे हैं। बिजनेस में टाटा और अंबानी का नाम किसी पहचान की मोहताज नहीं है। इसके अलावा एेसे अनेक लोग हैं। जो बिना विदेश मोहर के अपनी पहचान बना चुके हैं। जरूरत है देश के युवाओं को इस बात को समझाने की विदेश पढ़ने जाएं परन्तु मान-अपमान की कीमत पर नहीं। अगर इस विचार के साथ विदेश जाने की तैयारी कराने लगे तो शायद आने वाले भविष्य में इस तरह अपमानित होने की घटनाएं नहीं होगी। 

Wednesday, 18 December 2013

Sunday, 20 November 2011

जितने हमले होंगे उतना आंदोलन बढेगा

राष्ट्र पिता महात्मा गांधी ट्रेन से उतारे जाने के बाद अगर हिंसा का शिकार नहीं होते तो शायद भारत आजाद नहीं होता और न ही लोकतंत्र की नीव पड़ती। इसलिए टीम अन्ना जितना हिंसा के निशाने पर रहेगी। लोगों के भीतर पनप रहा असंतोष उतना ही मुखर होता जाएगा। क्यों•ि आत्मबल •े सामने बाहुबल और धन बल हमेशा परास्त हुआ है। यह केवल विचार रही। इतिहास इसका गवाह है। जब भी कोई आंदोलन जन आंदोलन बनता है तो उसे अनेक शल्य किर्रियाओं से गुजरना पड़ता है। यहीं आंदोलन की अग्नि दिव्य प्रकाश पुंज में तब्दील होती है। जो अपने ताप के आगोश सभी को लेती चली जाती है। और बाहुवली अपने हथकंड़ों के घेरे को कसते है। जो उनके अस्त होने का सूचक होता है। गांधी जी के अहिंसक आंदोलन को लेकर अनेक तरह की भ्रांतियां और मतांतर उस दौर में भी था। इस दौर में भी है। लेकिन जीत पवित्र उद्देश्य धारण करने वाले आत्मबल की ही होती है। अन्ना के आंदोलन पर चौतरफा हमले हो रहे हैं। लेकिन हर बार अन्ना हजारे टीम हमलों के बीच से रास्ता निकालकर अपने उद्देश्य को पाने के आगे बढ़ जाती है।

मेरा मानना है कि इस आंदोलन को जितने अधिक हमलों, दबाव का सामना करना पड़ेगा। उतना अधिक आम लोगों का समर्थन मिलता जाएगा। क्योंकि आम लोग तत्काल प्रतिकि्रिया व्यक्त नहीं करते हैं। उन्हें केवल भीड़ और दर्शक मानने वालों को यह समझ आया कि नहीं लेकिन हर बार परिपक्व होते लोकतंत्र ने इशारा किया है। आम आदमी ने किसी को अगर सिंहासन पर बैठाया है तो हाशिए पर ले जाने में भी कोई हिचक नहीं दिखाई है। उसका विश्लेषण भले ही हम कुछ भी करते रहें। परिणाम हमेशा चौंकात ही रहा है।
इसका स्पष्ट उदाहरण अभी हाल में हुए हिसार •के लोकसभा चुनाव के दौरान बना माहौल है। हरियाणा के भिवानी जिले में रहने वाले मेरे एक परिचित की डयूटी हिसार लोकसभा चुनाव में लगी थी। फोन पर उनसे चर्चा में चुनाव को लेकर र चर्चा हुई तो उनका उत्तर बेहद चौकाने वाला था। उनका कहना था कि अन्ना की अपील पर मतदान कक्ष के बाहर खड़े और मतदान करने आने वाले वोटर न सिर्फ कर रहे थे। इससे मतदानकर्मियों में पूरे देश की तरह उत्सुत्कता थी। क्या वास्तव में अन्ना फेक्टर वोट में तब्दील होगा कि नहीं। क्योंकि पहली बार वोटर इस तरह की चर्चा खुले आम कर रहा था। चार- पांच चुनाव में डयूटी देते समय उन्हें ऐसा नजारा नहीं दिखा था। उनकी उत्सुकता शाम होते होते परिणाम को लेकर आश्वस्त होने लगी थी । लेकिन उनका आकलन अपने मतदान केंद्र भर का न हो इसके लिए उन्होंने अपने अन्य साथियों से चर्चा कि तो चौंकानेकी बारी उनकी थी। सभी ने एक ही स्वर में कहा, अन्ना फैक्टर वोट में बदल गया है। यानि सियासत करने वाले माने न माने अन्ना की अपील असर कर गई है। घर आकर दोस्तों और परिचितों को उन्होंने बता दिया था कि देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ा हुआ आंदोलन न धीमा पड़ा है और न थमा है। बल्कि राख के नीचे दबी चिंगारी की तरह चारों तरफ फैल गया है। अब सब सावधान हो जाएं।
-राजेश रावत भोपाल

नई शर्ट

आज मैने नई शर्ट पहनी, आइनें में खुद को निहारा, चल पड़ा अपने काम पर, रास्तें लगा कि इसे उतार कर फेंक दूं, हिम्मत नहीं कर पाया, शायद लोगों की प्रतिकिरया के डर से/ तय नहीं कर पाया एेसा क्यों नहीं कर पाया/ पर मुझे झकझोर जरूर गया था यह वाकया/ सामने एक छोटा किशोर था/ जिसके बदन पर चिथड़े थे या कपड़े/ यह कहना मुशकिल है/ हम दोनों में एक समानता भी यही थी/ दोनों ने कपड़े अपने लिए नहीं पहने थे/ उसे लोगों की प्रतिकिरया की चिंता थी/ और मुझे भी लोगों की ही चिंता थी/ मैंने अनिच्छा से नई शर्ट पहनी और/ उसने अपनी इच्छा से पहनी थी

Saturday, 8 September 2012

अन्ना ने की एतिहासिक भूल

राजेश रावत भोपाल (18 दिसबंर 2013)
18 दिसबंर 2013 को लोकसभा ने लोकपाल बिल पास कर दिया। अन्ना हजारे ने अपना अनशन भी तोड़ दिया। केजरीवाल और उनके साथियों ने इसे काला दिन बताया। लेकिन इसके बीच अन्ना के उस बयान ने सभी को चौकाया था।जिसमें अन्ना ने कहा कि इस सरकारी लोकपाल बिल से केवल 40 से 50 फीसदी ही भ्रष्टाचार ही मिट पाएगा। इसे अन्ना की ईमानदारी या मजबूरी कह सकते हैं। जो उन्होंने लोगों के सामने जताई।
 आधा भ्रष्टाचार को मिटाने वाले बिल का समर्थन करना क्या अन्ना की मजबूरी थी । फिर इतने हंगामे की क्या जरूरत थी। देश के लोगों को अन्ना से जो आशा थी वह उनके बयान के साथ ही मिट गई। साथ ही जिस बात को अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम के साथी बार-बार दोहरा रहे थे। वह भी सही साबित हो गई कि सरकारी बिल कमजोर है। देश के लोग भी समझ गए कि आधा भ्रष्टाचार ही मिटाने वाला बिल का समर्थन भाजपा ने करते हुए कांग्रेस का साथ दिया। राज्यसभा में भी 17 दिसबंर 2013 को बिल का पास कर दिया था।
 अब सवाल उठता है कि जो लोगों की भावनाओं के साथ अन्ना ने यह खिलवाड़ क्यों किया। अगर अन्ना इस बिल का समर्थन नहीं करते तो तय था कि कांग्रेस को पूरा भ्रष्टाचार मिटाने वाला बिल पेश करना पड़ता लेकिन अन्ना एक नया इतिहास बनाने से चूक गए।
शायद उन्हें किरण बेदी और अन्य लोग यह समझाने में कामयाब हो गए कि उनके नाम पर अरविंद केजरीवाल की राजनीित चमक रही है। अगर अरविंद को रोकना है तो बिल का मामला ही खत्म कर दो। कांग्रेस और भाजपा भी यही चाह रहे थे। लेकिन अन्ना जितना इतिहास बनाने से चूके उतने ही वे लोगों के भरोसे को जीतने से भी चूक गए हैं।
भले ही लोग उनकी नीयत पर शक न करें। लेकिन इतना तय है कि वे यह मानने लगे हैं कि अन्ना कमजोर पड़े हैं। राजनेताओं के आगे झुक गए हैं। जीवन भर के ईमानदारी और सत्य की लड़ाई को अन्ना राजनीतिक चालों के सामने आधे परास्त हो। राहुल गांधी को बधाई का पत्र लिखने की वे कितनी भी सफाई दें। उनके दामन पर लगा आधा काला धब्बा उनके हर आंदोलन में देखने को मिलेगा। अब लोग उनके साथ उस शिद्दत से नहीं जुड़ेंगे।
यह अन्ना की आधी हार से ज्यादा आम आदमी की आधी हार है। इसके दूरगामी परिणाम होंगे। अब लोग एकदम से किसी भी जन आंदोलन में शामिल होने से पहले हजार बार सौंपेंगे। अन्ना जो भी सोचकर सरकारी लोकपाल का समर्थन किया हो। लेकिन तय है कि उन्होंने भारत की राजनेताओं के सामने हार मानी है। जिसे आने वाले समय में उनकी सबसे बड़ी भूल माना जाएगा।