Friday 4 September 2015

प्रधानमंत्री के स्वंय सेवक मानने पर इतना हंगामा क्यों

राजेश रावत,भोपाल 5सितंबर 2015 देश में कांग्रेस या अन्य दल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आरएसएस की बैठक में जाने और खुद को स्वंय सेवक मानने पर हंगामा कर रहे हैं। यह समझ से परे है। क्या वे नहीं जानते हैं कि प्रधानमंत्री स्वंय सेवक के रूप में वर्षों तक आरएसएस काम कर चुके हैं। उन्हें आरएसएस के इशारे पर ही गुजरात का मुख्यमंत्री बनाया गया था। इसके बाद मध्यप्रदेश में उमा भारती, बाबूलाल गौर और शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री बने। यह छुपा तथ्य नहीं है। फिर भी इस मुद्दे को बेवजह हंगामा किया जा रहा है। केवल लोगों का ध्यान बांटने की कोशिश और अपनी उपस्थिति जातने का प्रयास है। देश में ऐसे अनेक मुद्दे हैं, जिन पर कांग्रेस केंद्र सरकार को घेर सकती है। परन्तु कांग्रेस या अन्य दलों की मजबूरी कहें या कमजोरी। वे महत्वपूर्ण मुद्दों की नब्ज पर हाथ रखने में हमेशा चूक कर जाते हैं। जबकि इसके उलट भाजपा हो या संघ हमेशा ही लोगों के मुद्दों पर आक्रमक रूप से रूख अख्तियार करते रहे हैं। मोदी को देश में स्वीकार्यता भी इसी के चलते मिली थी। कांग्रेस या अन्य दल लोगों की परेशानियों को हमेशा नजर अंदाज करते रहे हैं। जब भाजपा विपक्ष में थी तो महंगाई समेत तमाम मुद्दों को जोर-शोर से उठाती थी। लोगों को लगता था कि कोई तो है जो हमारी आवाज को उठा रहे है। धीरे -धीरे लोग भाजपा से जुड़ते चले गए। मोदी ने जब खुलकर कांग्रेस को निशाने पर लिया तो देश के लोगों ने भी उन्हें सिर माथे पर बैठा लिया। राजनीतिक पंडित भी इस जुड़ाव को महसूस करने लगे थे। परन्तु 15 महीने के दौरान कांग्रेस अभी इस तरह का केवल एक बार ही कारनामा दिखा पाई है। जिससे जनता को फिर मोदी जमाने की याद आ गई। संसद में कांग्रेस के हंगामे को मीडिया भले ही कैसे ही ले। परन्तु लोगों ने इसे अपनी आवाज ही समझा। कांग्रेस को अवसर मिला था। इसे भुनाने का। पर वह मुद्दे को नहीं भुना पाई। देश के लोग उसकी आवाज में आवाज मिलाने को तैयार थे। पर कांग्रेस के नेता केवल संसद तक ही सिमटे रहे। राज्यों में कुछ आंदोलन रस्म अदायगी के साथ चला और रुखसत हो गया। यहां अगर भाजपा होती तो निश्चित तौर पर ऐसा आंदोलन करती कि आने वाले कई दिनों तक लोगों के जेहन में उसकी याद ताजा रहती। जबकि भाजपा ने फिर इस हंगामे को ताड़ लिया। तत्काल मोदी ने यूटर्न लिया भूमि अधिग्रहण प्रस्ताव को अटकाकर विरोध की लौ को पलीता लगा दिया। हालांकि पिछले दिनों विशेष सत्र को बुलाने की बात करके फिर से बुझी राख पर चिंगारी भी भाजपा ने दिखा दी है। अब कांग्रेस के पास फिर से मौका है। परन्तु वह कितना इस नए अवसर पर लोगों के साथ जुड़ पाती है। यह समय के साथ साफ होगा। दिल्ली की आप आदमी सरकार भी इस मुद्दे पर बेहतर रुख अपना सकती थी। परन्तु मोदी की चाल ने उसे दिल्ली में इतना उलझा दिया है कि वह अपनी खोई रफ्तार पाने की सोच भी नहीं पा रही है। अन्ना केजरीवाल जैसे फिर किसी नेता के नेपथ्य से सामने आने का इंतजार कर रहे हैं। हालांकि वे खुद इस बार किसी केजरीवाल को प्रमोट करने के पक्ष में नहीं है। परन्तु अन्ना की उम्र और हैसियत का तकाजा है कि वे किसी युवा नेता को फिर से तैयार करें। जो उनके आंदोलन की धार को सिर्फ पैना ही नहीं करे। बल्कि उससे सरकार के सार बंधनों को काट डाले। ताकि किसानों के आंदोलन पर सरकार झुक जाए और अगर नहीं झुके तो यूपीए सरकार की तरह खलनायक बन जाए। ऐसा कारनामा गुजरात में हार्दिक पटेल ने कर दिया है। वे भले जाति के नाम पर आंदोलन करके सामने आए हैं। परन्तु यह तय है कि उन्होंने देश के राष्ट्रीय फलक पर अपनी उपस्थित दर्ज करा दी है। जबकि पाटीदार और पटेलों की आरक्षण की मांग नई थी। परन्तु जिस नई उर्जा के साथ उन्होंने आंदोलन को एक नई ऊर्जा प्रदान की है। उस तरह के आंदोलन जरूरत देश में एक बार फिर से है। मेरा मतलब आरक्षण का विरोध या समर्थन से नहीं है। केवल आशय इतना है कि आंदोलन की रुपरेखा हार्दिक या अन्ना केजरीवाल के आंदोलन की तर्ज पर बनना चाहिए। ताकि सरकारें जागे और आम आदमी की छोटी से छोटी समस्याओं का निराकरण करने की दिशा में काम करें। अभी अधिकांश क्षेत्रों में सरकारें खानापूर्ति कर रही है। आम आदमी 150 में दाल खरीद रहा और बिचौलिए,दलाल मजे में है।