Friday 17 January 2014

आप को सलाह देने से पहले वास्तविकता जानें


-दिग्विजय सिंह की सलाह पर प्रतिक्रिया 


कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने हाल में दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार को इस तरह का सिस्टम बनाने की सलाह दी है जिससे आम लोगों की समस्या आसानी से सुलझ सके। दिग्विजय सिंह ने मध्यप्रदेश में अपने कार्यकाल में जो सिस्टम बनाया था। वह समय से पहले शुरू हो गया था। जबकि राज्य के लोग इसके लिए तैयार ही नहीं थे। इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें समस्याएं नहीं थी। या वे उनका निराकरण नहीं चाहते थे। बल्कि वे सहज और सरल तरीके से समस्याओं का निराकरण चाहते थे। 


जो बहुत ही छोटी हुआ करती थी। कई तो इतनी छोटी होती थी कि पटवारी और तहसील स्तर पर ही हल हो सकती थी। आपने समस्या निराकरण के लिए एक बड़ा भारी भरकम सिस्टम खड़ा कर दिया। जिसका लाभ तो उन्हें मिलना चाहिए था। लेकिन लाभ ले उड़े आपके दरबारी। 
  
आप मध्यप्रदेश में जिनसे मिलते थे वे बड़े नेता होते थे। वे आपके आसपास घेरा बनाकर रहते थे। उनके सामने लोग अपनी शिकायत ही नहीं कर पाते थे। आप समझते रहे लोगों की समस्या हल हो रही है। जबकि वास्तविकता इसके उलट थी। यहीं समस्या दिल्ली में शीला दीक्षित  की सरकार के साथ हुई। लोग आपके दरबारियों डर से अपनी समस्या के विषय में बोल ही नहीं पाते थे।  क्योंकि आप तो एक -दो के लिए ही शहरों या कस्बों में आते थे। उसके बाद तो लोगों का पाला इन्हीं नेताओं से  पड़ता था। 

अधिकारी और कर्मचारी भी इनसे बचना चाहते थे। सब आपको बताते रहे कि लोगों की समस्या के लिए आपका सिस्टम काम कर रहा है। आप उनकी बातों पर भरोसा करते रहे । कभी आपने जनाने की कोशिश ही नहीं की कि वास्तव में प्रदेश में चल क्या रहा है। 


अगर कभी आवाज बुलंद हुई तो आपके दरबारियों ने उसे विपक्ष की आवाज बताकर आपको गुमराह किया। आप भी भोले थे। और गुमराह भी हो गए। कई अच्छे काम इन घाघ नेताओं ने अटका दिए। यहां तक की उनके छोटे और जरूरी काम भी नहीं हो पाए। लोग नाराज थे। चुनाव में आपको बाहर का रास्ता दिखा दिया।


१० से ज्यादा  साल के बाद भी आपके दरबारी नहीं बदले हैं। लोग इन लोगों के बुरे बर्ताव और काम अटकाने की चालाकियों को लोग नहीं भूले हैं। हर घर में आपके कार्यकाल के दौरान आई परेशानियों को लोग चर्चा के दौरान बताते हैं। यानि आप इस भुलावे में रहे कि लोग आपके  पुराने कार्यकाल को भूल गए हैं।

आपके दरबारी उस समय को नहीं भूलने ही नहीं देते हैं। इस बार यही समस्या शिवराज सरकार में भी थी। लोग विकल्प चाहते थे। परन्तु उनके सामने बुरे और बहुत बुरे के बीच में चयन का सवाल खड़ा हो गया था। उन्हें कम बुरे को चुन लिया। दिल्ली में भी यही हुआ। केजरीवाल ने विकल्प दिया और लोगों ने भाजपा को छो़ड़कर उसे चुन लिया।

आप वास्तव में काम करना चाहते हैं। या फिर से मध्यप्रदेश की सत्ता में आना चाहते हैं या अपने बेटे को गद्दी पर बैठा देखना चाहते हैं तो सबसे पहले पुराने दरबारियों को अलविदा कहिए।  माधवराव सिंधिया ने भी यही गलती दोहराई। उन्हें लोगों ने समर्थन देने का मन बनाया था। उनके पुराने दरबारियों को देखकर कदम पीछे खींच लिए। 

सबको पता था कि महराज से मिलना भी उतना ही कठिन है। जितना दिग्गी राजा से।  आपको अपना नजरिया बदलने की जरुरत है। आप या किसी अन्य को  सलाह देने से पहले अपने नजरिए को बदलें। 

-राजेश रावत 
 १७जुलाई २०१४ 

Thursday 16 January 2014

दैनिक भास्कर को दिया राहुल ने पहला इंटरव्यू

-हिंदी अखबार ने रचा इतिहास 

देश ही नहीं दुनिया में दैनिक भास्कर ने नया इतिहास रचा है। भास्कर में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी का इंटरव्यू प्रकाशित किया है। १५ साल से राजनीति में सक्रिय राहुल का यह पहला इन्टरव्यू है।  मेरी पत्रकारिता के करियर में किसी हिंदी अखबार ने अभी तक इस  तरह खबर को ब्रेक नहीं किया है, जिसका कवरेज भारतीय टीवी चैनलों में २४ घंटे हुआ हो। यह हिंदी अखबारों की बढ़ती ताकत का सबूत भी है। भास्कर ने हिंदी अखबारों को जो गरिमा प्रदान की है, वह सुनहरी अक्षरों में दर्ज हो गई है। 

दैनिक भास्कर के नेशनल एडिटर कल्पेश याग्निक  ने जिस साफगोई से राहुल से सवाल किए गए और  मुद्दों पर सीधा जवाब लेने की कोशिश की, उससे आम पाठकों के अलावा राजनीतिक दलों में भी इन्टरव्यू को गंभीरता से लिया और सराहा। 

किसी हिंदी अखबार का इंटरव्यू  तीन दिन तक टीवी चैनलों पर चर्चा का विषय बना रहा। यह पूरा वाकया हिंदी पत्रकारिता के लिए एक सबक है। चाहे कितना भी बड़ा व्यक्ति सामने  क्यों न हो, आपको अपने महत्वपूर्ण सवालों को नहीं भूलना है। हस्ती के सामने सवालों को गौण नहीं होने दें। पाठक इस तरह ही बेवाक सवालों के उत्तर चाहता है। 

 इस इन्टरव्यू में पहली बार फ्रंट पेज पर हेड लाइन से तवज्जों उस सवाल को दी गई, जिसका उत्तर पूरे देश के साथ ही हर राजनीतिक दल जानना चाहता था। यहीं पर दैनिक भास्कर ने अपनी नई पत्रकारिकता की छाप छोड़ी है। आम तौर पर हिंदी अखबारों में हेड लाइन और सब हेड  के माध्यम से मूल बात कही जाती है। 

लेकिन इस इंटरव्यू में पहले सवाल और उसका उत्तर दिया गया। सपोर्ट में हेडलाइन को दिया गया है। यानि भास्कर ने पाठक को ध्यान में रखकर पूरे इन्टरव्यू को प्रकाशित किया। भास्कर की यह नीति भी है। दूसरे कह सकते हैं हर अखबार भी यही करती है, चाहता है। परन्तु वास्तविकता इससे दूर ही रहती है। 

पत्रकारों के हाथ में जैसी ही ब्रेकिंग खबर लगती है वे पाठक को भूल जाते हैं। बस पूरा ध्यान खबर को रोचक और चटपटा बनाने की तरफ रहता है। भास्कर की इस खबर में कहीं इस तरह की कोशिश नहीं झलकती है।  हां भास्कर का प्रेजेंटशन हमेशा की तरह रोचक था। यह उसकी ताकत भी है और यही बात भास्कर को पिछले १५ सालों से अलग ही बनाता रहा है। 

इस खबर के दैनिक भास्कर में ब्रेक होने के बाद कुछ टीवी चैनल मजबूरी में खबर चला रहे हैं। इसका सबूत खबर के बीच में उनकी तल्ख टिप्पणियों से उनकी खीज के रूप में सामने आता रहा। यह एक सामान्य व्यक्ति भी समझ रहा था।

वे समझ ही नहीं पा रहे थे कि आखिर राहुल ने देश के तमाम न्यूज चैनलों को छोडकर एक हिंदी अखबार को इंटरव्यू क्यों दिया। एनडीटीवी के एक कार्यक्रम के दौरान उसी दिन दैनिक भास्कर के नेशनल एडिटर कल्पेश याग्निक ने इसका उत्तर भी दे दिया। राहुल आम लोगों के बीच जाना चाहते हैं। इसलिए उन्होंने देश के सबसे बड़े और सबसे तेजी से बढ़ते अखबार को इंटरव्यू देने के लिए चुना।

भास्कर समूह १३ राज्यों से आठ समाचार पत्रों का प्रकाशन करता है। उसके ६६ संस्करण इन राज्यों से प्रकाशित और प्रसारित होते हैं। जिसमें हिंदी, गुजराती, मराठी भाषी अखबार भी शामिल हैं।

राजेश रावत 
भोपाल १६ जनवरी २०१४ 

Wednesday 15 January 2014

सलमान -मोदी का एक मंच पर आना अच्छा संकेत


गुजरात के मुख्यमंत्री नरेद्र मोदी को कट्टर हिंदू माना जाता है। उन्होंने अनेक मौकों पर इसका प्रमाण भी दिया है। परन्तु पहली बार उन्होंने सलमान के साथ मंच साझा किया। सलमान और मोदी के एक मंच पर आना भले ही अपने -अपने फायदे का नजरिया हो। परन्तु इससे गुजरात के साथ ही देश में एक नया दौर शुरू होगा। जिसे एक अलग तरीके से देखना होगा।

इसमें मोदी की कटी उंगली पर बेंडएज लगाकर सलमान ने अच्छा ही किया। इसे इस तरह से भी देखा जा सकता है कि आपकों घाव देने की जिद हो सकती है। परन्तु हमारी तो फितरत घावों पर मरहम लगाने की है। दूसरा यह भी हो सकता है कि मोदी केवल भ्रामक प्रचार के शिकार हो गए हैं। जो कुछ लोगों ने अपने ही लाभ के लिए किया हो। मोदी ने इसका खुलकर विरोध नहीं किया और कुछ उनके आक्रामक स्वभाव से इस प्रचार को हवा भी मिली। 

मोदी प्रधानमंत्री बनने के लिए किसी भी हद तक समझौता कर सकते हैं। इससे यह तो साफ हो ही गया है। भाजपा भी सत्ता की चाबी के लिए किसी भी मत्था टेकने को राजी है। इसका कारण यह भी है कि दोनों को लगता है कि कांग्रेस के खिलाफ इससे ज्यादा नाराजगी जनता में फिर कभी नहीं होगी। उसने पिछले पांच सालों में जितने अभियान चलाकर कांग्रेस को बदनाम करने की कोशिश की और कुछ काम खुद ही कांग्रेस सरकार और उसके मंत्रियों ने किए। जिससे पूरे देश में कांग्रेस के खिलाफ महौल बन गया।

कांग्रेस सत्ता के नशे में इस नाराजगी को समझ नहीं पाई। उसकी आंख अब खुली है जब चार राज्यों की सत्ता उसके हाथ से खिसक गई। दिल्ली में आप की सरकार बन गई। गांधी परिवार को समझ आ गया कि अब उनके दरबारियों से बाहर के लोगों को एंट्री देनी होगी। पुराने दरबारी सही रिपोर्ट नहीं ला पा रहे हैं। इसके कुछ प्रमाण भी हैं।

मोदी गुजरात में टोपी न पहनने से मुसलमानों की नाराजगी झेल चुके हैं। देश में मुसलमानों की नाराजगी के चलते वे प्रधानमंत्री नहीं बन सकते हैं। क्योंकि देश के आधे से ज्यादा हिंदू मुसलमानों के साथ समान बर्ताव के समर्थक हैं। इसलिए पहली बार आरएसएस के खोल को हटाने की मोदी ने कोशिश की है। भले ही यह कुछ देर के लिए हो या दिखावटी हो। परन्तु इससे मोदी के कटटर एजेंडे से नाराज लोगों को राहत मिली है। उन्हें लगने लगा है कि चलो सबको साथ लेकर चलने की कोशिश तो कर रहे हैं।

मोदी को इस पहल का सकारात्मक लाभ मिलेगा। मोदी के साथ ही भाजपा को भी यह समझ में आ गया है कि देश में केवल साफ्ट नेचर का राजनेता ही प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार माना जाता रहा है। लाल बहादुर शास्त्री, मनमोहन सिंह, अटल बिहारी, राजीव गांधी, नरसिम्हा राव आदि नेता इसके उदाहरण है। अभी हाल में अरविंद केजरीवाल सबसे ताजा उदाहरण है। अगर मोदी आक्रामकता छोड़कर सामान्य और आम आदमी की तरह नजर आने लगेंगे तो उनके समर्थकों का दायरा बढ़ने लगेगा।
राजेश रावत
 15 जनवरी
 भोपाल, मध्यप्रदेश


Sunday 12 January 2014

मोदी ने फिर गलत तर्क देकर किया लोगों को गुमराह 

भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी ने आज फिर गलत तर्क दिए। इसके साथ ही साफ हो गया कि वे जानबूझकर लोगों को प्रभावित करने के लिए गलत तर्क देते हैं। इसे मैं उनकी जोर से बोलो, झट से बोलो राजनीति का हिस्सा मानता हूं। जोर से और झट से बोलने से लोग गलत बात को कुछ पल के लिए सही भले न माने पर उस पर विश्वास जरूर कर लेते हैं। यही मोदी भी चाहते हैं। परन्तु इससे उन पर लोगों को भरोसा जमने के स्थान पर कम होता जा रहा है।


आप देखें कि जब भी किसी नेता ने गलत तर्क दिए हैं। लोग उससे असहमति भले न जताए। पर उससे सहमत कभी नहीं हुए हैं। जब भी चयन का निर्णय उनके पास आया। गलत तर्कों को खारिज ही किया है। अबकी बार मोदी ने जो तर्क दिया है। वह है पूर्व प्रधानमंत्री के संबंध में है। पूरा देश जानता है कि अटल जी जीवन भर कांग्रेस के समर्थन से ही संसद में प्रभावी बने रहे हैं।

उनकी योग्यता पर किसी प्रकार का कोई प्रश्नचिंह मैं नहीं लगा रहा हूं। न ही एेसी धृष्टता कर सकता हूं। तथ्यों को देखे कि जब भी अटल जी ने प्रभावी भाषण दिया।प्रधानमंत्री  नेहरूजी हो या इंदिरा जी ने उनका उत्साह बढ़ाया। जैसे आज अरविंद केजरीवाल का जैसा उत्साह राहुल गांधी ने बढ़ाया है।

भाजपा ने इस बात का कभी जिक्र नहीं किया। आभार मानना तो दूर की बात है। अगर ये नेता उस समय उनके अच्छे भाषण की तारीफ नहीं करते तो अटल जी का जो कद इतना बडा बना है। आज नहीं होता। न ही मोदी हर बार भाषण में उनका नाम नहीं ले पाते।

यानि नेहरू जी या इंदिरा जी की भाजपा के कद बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उस समय अटलजी भाजपा और आरएसएस के लिए सबसे बड़े संकट थे। कभी उन्हें दोनो ही दलों ने उनकी वरिष्ठा के हिसाब से सम्मान नहीं दिया।

भाजपा में वे हमेशा ही साफ्ट विचारों वाले एक कमजोर नेता रहे हैं। जबकि सत्ता दिलाने में यह नम्र स्वभाव वाला कमजोर व्यकि्त सबसे ताकतवर बनकर उभरा था। अटलजी ने अपने लिए कुछ नहीं किया। यह भी सही है। लेकिन उनके दामाद ने उनके कद और प्रभाव का कितना दोहन किया है। यह बात भी किसी से नहीं छिपी है। कई मामलों में उनका नाम आया है। मगर उसे हमेशा ही छुपाया गया।

यहीं मेरा मोदी पर गलत बयानी का आरोप है। जब आप वंशवाद और भ्रष्टाचार के  खात्मे की बात करते हैं। तो अटलजी के नाम पर हुए इस मामले पर खुलकर क्यों नहीं बोलते हैं।

मध्यप्रदेश समेत देश के सभी राज्यों में नेताओं के पुत्र मंत्री, विधायक और सांसद हैं। उन पर नीति साफ क्यों नहीं करते। माना कि सबको राजनीति का अधिकार है। पर टिकट तो इन नेता पुत्रों कों उनके पिता के नाम पर ही दिया जाता है। अगर उनके पिता का नाम हटा दिया जाए एक या दो नेता पुत्रों या पुत्रियों को छोड़कर  उनके काम शून्य हो जाएंगे।

इससे पहले भी मोदी कई गलत तथ्य़ पेश कर चुके हैं। क्या देश में जो व्यक्ति प्रधानमंत्री बनने के लिए झूठे,गलत तर्को पेश करके देश के सबसे बड़े पद पर चुने जाने की लालसा रखता है। उसे इस तरह का आचरण पेश करना चाहिए। निश्चित ही जवाब नहीं होगा। फिर यह बात मोदी की समझ में क्यों नहीं आ रही है। उनके समर्थक भी उनके गलत तर्को की आलोचना नहीं करके मोदी के रास्ते में ही कांटे बिछा रहे हैं।

गलत तर्क और झूठी जानकारी भारत में सदैव ही निंदा की पात्र रही है। परन्तु इस समय खुलकर लोग गलत बात का समर्थन कर रहे हैं।

राजेश रावत 
12 जनवरी 2014 
भोपाल 

Wednesday 8 January 2014

देश में बह रही नई बयार मध्यप्रदेश नशे में 

दिल्ली में आम आदमी पार्टी नई नई घोषणा लोगों के हितों में कर रही है। उसका कितना लाभ होगा यह भविष्य और इनके क्रियान्वन पर निर्भर करता है। परन्तु इतना तय है कि लोगों के हित में कुछ नया हो रहा है। आम आदमी की चिंता हो रही है। उसकी परेशानियों को हल करने के प्रयास हो रहे हैं। इतना ही आम लोगों के लिए संतोष की बात है।
सब जानते हैं भ्रष्टाचार एक दिन या एक दो कानून से नहीं खत्म होने वाला है। यह एक लंबी प्रक्रिया है। पर इसका प्रभाव तत्काल सामने आने लगता है। लोगों को राहत मिलना शुरू हो जाती है। थोड़ी सी सख्ती से काम फटाफट होने लगते हैं। लोग डर कर कुछ दिन सही काम करते हैं।

एेसे दौर में मध्यप्रदेश में सरकार और नेता नशे में है। शराब की दुकानों पर राजनीति कर रहे हैं। मुख्यमंत्री को घेर रहे हैं। क्या इनके पास कोई मुद्दा नहीं बचा है। यह फिर बहाना ही ढूढते रहते हैं। मुख्यमंत्री भी रात भर नहीं सो पा रहे हैं। कभी उन्हें जनता की किसी समस्या पर उनकी नींद नहीं उड़ी। पर शराब की दुकानों से उड़ने वाले नशे ने जरूर उड़ा दी।
इसे मुक्त हाथ से मिली चुनावी सफलता का प्रभाव भी कहा जा सकता है। हर बड़ी सफलता के बाद सफल होने वाला कुछ पल के लिए रुकता है। इस खुमारी के दौर में एेसे निर्णय हो जाते हैं। इसमें किसी को दोष नहीं दिया जा सकता है। परन्तु खुमारी जल्दी ही उतर जाए तो अच्छा है। भाजपा के लिए अच्छा हो या न हो । पर प्रदेश के लोगों के लिए जरूर अच्छा रहेगा। भाजपा नेता कम से कम जनहित में काम तो करने लगेंगे। कुछ नया सोचने लगे।

 मध्यप्रदेश वैसे भी दिल्ली या गुजरात जैसे राज्यो से विकास के मामले में बहुत पीछे है। यहां के लोगों के पास रोजगार नहीं है। सरकारी नौकरियों पर बाहरी लोगों का ही कब्जा है। आंकड़े इसकी पु्ष्टि कर देंगे। यहां अभी प्रांतवाद इतना नहीं है।सड़कों की हालत भी बहुत अच्छी नहीं है। उद्योग भी एेसे नहीं है जहां नौकरी मिल सके।
राजेश रावत
भोपाल, 8 जनवरी 2014

Tuesday 7 January 2014

 ब़डे बेआबरू होकर तेरे कूचे से निकले

पश्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग अध्यक्ष जस्टिस एके गांगुली का इस्तीफा हो गया। दिसंबर 2013 में उन पर दुष्कर्म का आरोप लगा था। एक माह से ज्यादा दिनों तक वे पद पर डटे रहे। आरोप कितने सही या गलत थे। इसका फैसला तो होता रहेगा। लेकिन गांगुली ने पद छोड़ने में जो देरी की है। वह ठीक वैसे ही है। जैसे देश में लोगों को न्याय मिलने में होने वाली देरी। यानि देश की जो सबसे बड़ी भरोसे की संस्था है, उसमें बैठने वालों में निर्णय करने में देरी का मामला ही सबसे अहम है।

हालांकि कानून की किताबों में कहा गया है कि सौ गुनाहगार बच जाए। लेकिन एक निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए। परन्तु जब बड़े पदों पर बैठे व्यकि्तयों का मामला हो तो देरी नहीं होनी चाहिए। उसके तीन कारण हैं। पहला  पूरे प्रकरण को मैनेज करने का खतरा। दूसरा आम लोगों के सामने उदाहरण पेश करने की जिम्मेदारी। तीसरा आम आदमी का भरोसा बनाए रखना।

अगर गांगुली पहले दिन ही इस्तीफा दे देते तो शायद उनकी ईमानदारी पर किसी को शक नहीं होता। एक महिला के मामले में उन्हें इतनी उदारता तो दिखानी ही चाहिए थे। उनसे इसकी अपेक्षा भी थी। क्योंकि आरोप लगने के बाद भी तत्काल लोगों को भरोसा नहीं हुआ था। बाद जब घोटालों के मामले में उनके फैसले की जानकारी आम लोगों को लगी तो उनके मन में शंका के बीज पड़ गए थे। जिसका तत्काल इस्तीफा देने से उन्हें लाभ मिलना तय था। इस तरह उन्हें बेआबरू होकर पद भी छोड़ना पड़ता।

लोग जानते हैं कि जिन मामलों में उन्होंने कठोर फैसले सुनाए हैं। उससे प्रभावित होने वाले किसी भी हद तक जा सकते हैं। गए भी होंगे। परन्तु जस्टिस गांगुली के बार बार इस्तीफा देने से इनकार करने से लोगों के भरोसा में टूटा है।

जो जज निडरता के साथ कई लोगों के फैसले अपनी कलम से कर चुका है। वह कठघरे में खड़ा होने से क्यों डर रहा है। माना कि बहुत कुछ मैनेज किया जा सकता है। हुआ भी होगा। परन्तु न्याय न सिर्फ  भरोसा रखना होगा। बल्कि उसमें आस्था भी दर्शाना होगी। तभी तो बुराई से जीता जा सकता है। सदियो से न्याय को मैनेज किया जाता रहा है। परन्तु क्या हर बार न्याय को अपनी बांदी समझने वाले सफल होते हैं। यकीनन ही इसका जवाब नहीं ही है।

अगर एेसा होता तो क्या जिस निडरता से खुद जस्टिस गांगुली फैसला चुना पाए हैं। वे सुना पाते। देश में कई जजों ने भी इसी तरह से फैसले सुनाए हैं। कई को प्रभावित लोगों ने अपने ढंग से परेशान और हैरान किया है। अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं। इन सबके बाद भी  जस्टिस गांगुली फैसले ले सके। आगे उनके जैसे दूसरे जज भी एेसे ही कठोर फैसले ही लेंगे। इसकी गति कम भले हो जाए। बंद कभी नहीं होगी। बस समय का इंतजार करिए।  

राजेश रावत

7जनवरी 2014 भोपाल

Monday 6 January 2014

आम आदमी पार्टी दूरी बनाए प्रशांत भूषण से

जम्मू कश्मीर भारत का अविभाज्य अंग है। इसके बगैर भारत की कल्पना नहीं की जा सकती है।
 जवाहरलाल नेहरू ने अगर जम्मू कश्मीर के मामले कथित तौर पर गलती की है तो प्रशांत भूषण उस गलती को विराल समस्या के रूप में देश और दुनिया के सामने पेश कर रहे हैं। एेसे देश द्रोही व्यकि्त से आम आदमी पार्टी को तत्काल दूरी बना लेना चाहिए। क्योंकि देश का कोई भी व्यक्ति सोच भी नहीं सकता है।
 इसकी वकालात प्रशांत भूषण जैसे पाकिस्तान और अमेरिका के समर्थक ही कह सकते हैं। प्रशांत और उनके पिता शांतिभूषण बिना लाभ के कुछ नहीं करते हैं। देश के अधिकांश लोग इस बात को जानते हैं। उनके खिलाफ कई मामलों के सामने आने के बाद इसका खुलासा हुआ है।
अब उन्होंने अपना नाम फिर से सुर्खियों में लाने के लिए इस मामले को उछाला है। मोदी और भाजपा भी समय -समय पर इस तरह की कोशिश कर चुके हैं।
हालांकि उनका तरीका दूसरा होता है। परन्तु राजनीति इसी तरह की होती है। लोगों को डराने के लिए कश्मीर का मुद्दा भाजपा उठाती रहती है। धारा 370 के मुद्दे को अभी कुछ दिनों पहले ही उन्होंने उठाया था। जब अटल बिहारी की सरकार थी तब भाजपा ने इस पर कोई कार्रवाई नहीं की थी। इसका सीधा मतलब है कि भाजपा राम मंदिर मुद्दे की तरह ही इस मुद्दे को कभी हल नहीं करने देना चाहती है। बस दोहन करना चाहती है।
कांग्रेस तो एेसे मुद्दे का दोहन करने में माहिर ही है। वह कान सीधे नहीं पकड़कर घुमाकर पकड़ती है। भाजपा के पास सीधे कान पकड़ने के अलावा कोई चारा नहीं बचता है इसलिए वह जल्दी एक्सपोज हो जाती है। अब आप से जुड़े प्रशांत भूषण के इस बयान से उसका भी मुद्दे का दोहन करने का इरादा झलकता है।
अगर वास्तव में आम आदमी का इस तरह से कोई इरादा नहीं है तो उसे प्रशांत भूषण से मुकि्त पाना चाहिए। ताकि देश की अंखडता के मामले में उसका एजेड़ा लोगों के सामने साफ हो। वह लोकसभा चुनाव से पहले अपने घोषणा पत्र में इस बात का स्पष्ट और साफ -साफ खुलासा करे कि उसकी नीति क्या है। अगर आप ने देश की एकता के सवाल पर अपना स्टैंड साफ नहीं किया तो यह तय है कि उसका साथ आम लोग छोड़ देंगे। क्योंकि वे बगैर कश्मीर के ल्पना ही नहीं कर सकते हैं।

Sunday 5 January 2014

देश का दुर्भाग्य रामदेव दे रहे हैं देश को दिशा



इस देश का यह दुर्भाग्य है कि रामदेव जैसे लोग देश को दिशा देने का दावा करते हैं। जिसे खुद ही नहीं पता है कि किस दिशा में कब और कहां जाना है। दिल्ली आंदोलन में सलवार पहनकर भागने वाले रामदेव लगातार अपनी छवि को देशभक्त के रूप में पेश करने में लगे हैं। सभी को अधिकार है। उनके अधिकार पर कोई टिप्पणी नहीं है। योग करें। देशभक्त बने। अपनी बात रखें, कोई परेशानी नहीं। परन्तु देश को दिशा देने की कोशिश पर आपत्ति है। लोगों को गुमराह करने का विरोध है। उनकी नीयत पर शंका है।
बाबा रामदेव एक दवा व्यापारी है। भले ही आयुर्वेदिक। डाबर कंपनी की तरह, उनकी भी कंपनी है। नफे और नुकसान का गणित लगाकर भाजपा के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी को लगातार ब्लैक मेल कर रहे हैं। यह भी हो सकता है कि यह उनकी और भाजपा की साझा रणनीति हो। एक दिन पहले मोदी से टैक्स पर और अन्य मुद्दों पर राय मांगते हैं। दूसरे दिन मोदी मंच पर होते हैं। उनकी बातों का समर्थन करते हैं। अब इसका क्या मतलब लगाया जाए। या तो दोनों लोगों को बिलकुल ही मूर्ख समझ रहे हैं या दोनों ज्यादा मुगालते में है। लोग सब समझ रहे हैं।

अब बात करते हैं टैक्स की। रामदेव के मुद्दे की। क्या गुजरात में सारे टैक्स व्यापारियों और जनता से नहीं लिए जाते हैं। क्या मध्यप्रदेश, राजस्थान में टैक्स कम है। मध्यप्रदेश में डीजल, पेट्रोल और बिजली के दाम तो देश भर में सबसे ज्यादा है। क्या रामदेव को नहीं पता। फिर क्यों नहीं कहते इन राज्यों की सरकारों से और मुख्यमंत्रियों से कम करने को। जो वे कर सकते हैं। कभी इन प्रदेशों के आम लोगों की चिंता की है। नहीं कि तो फिर उन्हें क्या नैतिक अधिकार है। इस तरह के मुद्दों पर बोलने का।
मतलब साफ है। रामदेव लोगों को गुमराह करने की कोशिश कर रहे हैं। या खुद इतने गुमराह है कि कुछ दिखाई ही नहीं देता है। दूसरा भी कारण हो सकता है। जैसे ही उत्तराखंड में उनके खिलाफ कोई कार्रवाई शुरू होती है वे चैनल पर आ जाते हैं औऱ गड़िरए की तरह चिल्लाने लगते हैं। शेर आया ..शेर आया। भीड़ एकत्र हो जाती है। परन्तु असल में शेर नहीं होता। यह भीड़ भी ज्यादा बार नहीं आएगी।


 यह शायद रामदेव भूल गए हैं। मोदी और भाजपा उन्हें केवल तब तक ही झेल रही है जब तक लोकसभा चुनाव नहीं हो जाते। जैसे ही चुनाव हुए और भाजपा, मोदी उनसे पल्ला झाड़ लेंगे। भाजपा का पुराना इतिहास ही यह रहा है। उदाहरण के लिए मायावती, कल्याण सिंह, उमा भारती के नाम गिनाए जा सकते हैं। लालकृष्ण आडवाणी को भी नहीं भूलना चाहिए। जिसने भाजपा को जिंदा किया उसे एेसे दर किनार किया है वह उस दिन को कोस रहे होंगे। जब उन्होंने भाजपा को सत्ता में लाने के लिए सारी उम्र् ही फूंक दी। कथावाचक आसाराम भी इसी तरह से चिल्लाते रहे हैं। पर आज उनका क्या हश्र हुआ है। सबको पता है।
राजेश रावत 
5 जनवरी 2014
भोपाल 

Thursday 2 January 2014

सबको कर दिया अपना कायल 

केजरीवाल के भाषण पर प्रतिक्रिया

नए साल का दूसरा दिन था आज। यानि दो जनवरी २०१४। आम आदमी की सरकार की परीक्षा की घडी। सबको इंतजार था आज के दिन का। आम आदमी को सबसे ज्यादा। क्यों। उसकी अपनी सरकार के भविष्य का सवाल था। चिंता थी। राजनीतिक दलों को भी। उन्हें  दिल्ली विधानसभा से मिलने वाले राजनीतिक संदेश का इंतजार था। बड़े घरानों को भी। इंजीनियर को भी और डॉक्टर को भी। यानि देश की हर निगाह थी दिल्ली विधानसभा की कार्रवाई पर।

 शायद पहली बार एेसा नजारा। जहां देश का हर व्यक्ति देश की एक विधानसभा की कार्रवाई को आतुरता से न सिर्फ देख रहा था। बल्कि उससे उठने वाली सर्द और गर्म हवाओं से खुद को प्रभावित होते महसूस कर रहा था। इतनी उत्सुकता और उमंग थी कि लगभग लोग काम बंद करके केवल चैनल ही देख रहे थे। मौका ही था एेसा । देश में नई राजनीतिक धारा की दशा और दिशा तय होने का समय जो था।
विधानसभा में  करने को कांग्रेस नेताओं के पास कुछ था ही नहीं तो वे सर्मथन के अलावा कुछ नहीं कर सकते थे। पिछले दिनों के तमाम विरोध प्रर्दशनों के बाद भी उसने समय पर सही दिशा पकडी।

लेकिन भाजपा यहां फिर से गच्चा खा गई। वह आप को समर्थन नहीं करना उसकी राजनीतिक मजबूरी हो सकती है। पर वह दिल्ली में एक रिस्क लेकर देख सकती थी। न समर्थन दे तो भी नराकात्मक भाव को छोड़कर लोगों को संशय में खड़ा करके अपनी रणनीति आगे बढ़ा सकती है। पर उसने वह भी नहीं किया। हर्षवर्धन आम आदमी होकर भी गलत राह पर चले गए।

 एेसा लगता है कि भाजपा के नेता केंद्र में अपनी सरकार बनने से इतने आश्वस्त हैं कि वे कुछ देखने,सुनने या समझने  को तैयार ही नहीं है। वह यह भी समझने को तैयार नहीं है कि आप के साथ कोई दूसरे देश से आए लोग नहीं है। बल्कि वे लोग हैं, जो उन्हें या कांग्रेस को ही वोट देते रहे हैं। भाजपा के वादों पर उनका एतबार कम हो चुका है और कांग्रेस पर भरोसा नहीं है।  
अरविंद केजरीवाल ने विधानसभा में बोलना शुरू किया। लोग सुनने लगे। विधानसभा में भी सन्नाटा था। देश में भी अद्भुत खोमाशी। केवल टीवी चैनल पर हर घर में केजरीवाल की आवाज गूंज रही थी। लोगों को अपनी ही आवाज दिल्ली से गूंजती सुनाई दे रही थी। केजरीवाल बोलते जा रहे थे और लोग समझते जा रहे थे। समर्थन करते जा रहे थे।

उन्हें लग रहा था अरे यह क्या। यह तो हमारी ही तरह से हमारी बात ही तो बोल रहा है। हम भी तो इसी तरह से बोलते हैं। न गुस्से में न तीखे तेवर में। न मिलावट के साथ । न ही विशेषज्ञों की तरह। एकदम आम । बस सीधे और सरल शब्दों में। जिसमें न  किसी की आलोचन न नुक्ताचीनी। बस अपने और अपने परिवार की चिंता की बात।
आम आदमी घर में था। परिवार के साथ सुन रहा था। अपनी ही चिंता को अपने ही नेता के मुंह से। उसे लगने लगा यहीं तो बात तो सारे राजनेताओं को मैं समझाने की कोशिश कर रहा था। 

चलो अच्छा हुआ केजरीवाल ने समझा दिया। भाषण खत्म हुआ। सबने अपने ही घरों में तालियां बजाई और मुरीद हो गए केजरीवाल के। देश में हर घर से।  हर दिल से आम आदमी की आवाज ही निकली। इतना समर्थन तो कभी मोदी को भी नहीं मिल सकेगा। यह तय है।
केजरीवाल के भाषण का मतलब सबने अपनी -अपनी क्षमता से ही लगाया। पर एक बात पर सब एकमत हो गए हैं। केजरीवाल आम आदमी है। सही में हमारा आदमी। हमारे जैसा। हमारी ही चिंता है उसे। एेसा भरोसा जिसके लिए सारे देश की राजनीतिक पाट्रियां तो न जाने क्या क्या स्वांग रचाती है।  पर अरविंद केजरीवाल कुछ मिनटों के भाषण में लूट ले गए। 

इस देश में कोई भी राजनेता एेसा नहीं है। जो जिसमें लोग अपने आप को देखते हों। केजरीवाल ही एकमात्र एेसे आदमी हैं जिसे आम लोगों बिना जाति-समाज या धर्म के अपना समझने लगे। यही तो नजर और नजरिया शिखर पर पहुंचने के बाद आम आदमी नेताओं से चाहता है। पर नेता इसे समझना ही नहीं चाहते हैं। बस जीतते ही बदल जाते हैं पावर में। जहां आम आदमी की पहुंच हो जाती है उससे दूर । घिर जाता है वह चाटुकारों में।
अब केजरीवाल नया राजनीतिक ट्रेंड सेट कर दिया है। उस पर खरा उतरना सभी नेताओँ की मजबूरी हो गई है। नहीं उतरे तो खारिज। आउट। या गैट आउट । 
राजेश रावत
२ जनवरी २०१४ भोपाल मध्यप्रदेश 
सबको कर दिया अपना कायल 

केजरीवाल के भाषण पर प्रतिक्रिया


नए साल का दूसरा दिन था आज। यानि दो जनवरी २०१४। आम आदमी की सरकार की परीक्षा की घडी। सबको इंतजार था आज के दिन का। आम आदमी को सबसे ज्यादा। क्यों। उसकी अपनी सरकार के भविष्य का सवाल था। चिंता थी। राजनीतिक दलों को भी। उन्हें  दिल्ली विधानसभा से मिलने वाले राजनीतिक संदेश का इंतजार था। बड़े घरानों को भी। इंजीनियर को भी और डॉक्टर को भी। यानि देश की हर निगाह थी दिल्ली विधानसभा की कार्रवाई पर।
अब केजरीवाल नया राजनीतिक ट्रेंड सेट कर दिया है। उस पर खरा उतरना सभी नेताओँ की मजबूरी हो गई है। नहीं उतरे तो खारिज। आउट। या गैट आउट । 



 शायद पहली बार एेसा नजारा। जहां देश का हर व्यक्ति देश की एक विधानसभा की कार्रवाई को आतुरता से न सिर्फ देख रहा था। बल्कि उससे उठने वाली सर्द और गर्म हवाओं से खुद को प्रभावित होते महसूस कर रहा था। इतनी उत्सुकता और उमंग थी कि लगभग लोग काम बंद करके केवल चैनल ही देख रहे थे। मौका ही था एेसा । देश में नई राजनीतिक धारा की दशा और दिशा तय होने का समय जो था।
विधानसभा में  करने को कांग्रेस नेताओं के पास कुछ था ही नहीं तो वे सर्मथन के अलावा कुछ नहीं कर सकते थे। पिछले दिनों के तमाम विरोध प्रर्दशनों के बाद भी उसने समय पर सही दिशा पकडी। 

लेकिन भाजपा यहां फिर से गच्चा खा गई। वह आप को समर्थन नहीं करना उसकी राजनीतिक मजबूरी हो सकती है। पर वह दिल्ली में एक रिस्क लेकर देख सकती थी। न समर्थन दे तो भी नराकात्मक भाव को छोड़कर लोगों को संशय में खड़ा करके अपनी रणनीति आगे बढ़ा सकती है। पर उसने वह भी नहीं किया। हर्षवर्धन आम आदमी होकर भी गलत राह पर चले गए।

 एेसा लगता है कि भाजपा के नेता केंद्र में अपनी सरकार बनने से इतने आश्वस्त हैं कि वे कुछ देखने,सुनने या समझने  को तैयार ही नहीं है। वह यह भी समझने को तैयार नहीं है कि आप के साथ कोई दूसरे देश से आए लोग नहीं है। बल्कि वे लोग हैं, जो उन्हें या कांग्रेस को ही वोट देते रहे हैं। भाजपा के वादों पर उनका एतबार कम हो चुका है और कांग्रेस पर भरोसा नहीं है।  
अरविंद केजरीवाल ने विधानसभा में बोलना शुरू किया। लोग सुनने लगे। विधानसभा में भी सन्नाटा था। देश में भी अद्भुत खोमाशी। केवल टीवी चैनल पर हर घर में केजरीवाल की आवाज गूंज रही थी। लोगों को अपनी ही आवाज दिल्ली से गूंजती सुनाई दे रही थी। केजरीवाल बोलते जा रहे थे और लोग समझते जा रहे थे। समर्थन करते जा रहे थे। 

उन्हें लग रहा था अरे यह क्या। यह तो हमारी ही तरह से हमारी बात ही तो बोल रहा है। हम भी तो इसी तरह से बोलते हैं। न गुस्से में न तीखे तेवर में। न मिलावट के साथ । न ही विशेषज्ञों की तरह। एकदम आम । बस सीधे और सरल शब्दों में। जिसमें न  किसी की आलोचन न नुक्ताचीनी। बस अपने और अपने परिवार की चिंता की बात। 
आम आदमी घर में था। परिवार के साथ सुन रहा था। अपनी ही चिंता को अपने ही नेता के मुंह से। उसे लगने लगा यहीं तो बात तो सारे राजनेताओं को मैं समझाने की कोशिश कर रहा था। 

चलो अच्छा हुआ केजरीवाल ने समझा दिया। भाषण खत्म हुआ। सबने अपने ही घरों में तालियां बजाई और मुरीद हो गए केजरीवाल के। देश में हर घर से।  हर दिल से आम आदमी की आवाज ही निकली। इतना समर्थन तो कभी मोदी को भी नहीं मिल सकेगा। यह तय है। 
केजरीवाल के भाषण का मतलब सबने अपनी -अपनी क्षमता से ही लगाया। पर एक बात पर सब एकमत हो गए हैं। केजरीवाल आम आदमी है। सही में हमारा आदमी। हमारे जैसा। हमारी ही चिंता है उसे। एेसा भरोसा जिसके लिए सारे देश की राजनीतिक पाट्रियां तो न जाने क्या क्या स्वांग रचाती है।  पर अरविंद केजरीवाल कुछ मिनटों के भाषण में लूट ले गए। 

इस देश में कोई भी राजनेता एेसा नहीं है। जो जिसमें लोग अपने आप को देखते हों। केजरीवाल ही एकमात्र एेसे आदमी हैं जिसे आम लोगों बिना जाति-समाज या धर्म के अपना समझने लगे। यही तो नजर और नजरिया शिखर पर पहुंचने के बाद आम आदमी नेताओं से चाहता है। पर नेता इसे समझना ही नहीं चाहते हैं। बस जीतते ही बदल जाते हैं पावर में। जहां आम आदमी की पहुंच हो जाती है उससे दूर । घिर जाता है वह चाटुकारों में। 
राजेश रावत भोपाल
२ जनवरी २०१४